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शौक़ से दिल को तह-ए-तेग़-ए-नज़र होने दो / लाला माधव राम 'जौहर'

शौक़ से दिल को तह-ए-तेग़-ए-नज़र होने दो
जिस तरफ़ उस की तबीअत है उधर होने दो

दिल की क्या अस्ल है पत्थर भी पिघल जाएँगे
ऐ बुतो तुम मिरे नालों में असर होने दो

ग़ैर तो रहते हैं दिन रात तुम्हारे दिल में
कभी इस घर में हमारा भी गुज़र होने दो

नासेहो हम तो ख़रीदगें मता-ए-उल्फ़त
तुम को क्या फ़ाएदा होता है ज़रर होने दो

वलवले अगली मोहब्बत के कहाँ से लाएँ
और पैदा कोई दिल और जिगर होने दो

छेड़ने को मिरे दरबान कहा करते हैं
ठहरो जल्दी न करो उन को ख़बर होने दो

क्यूँ मज़ा देख लिया दिल की कशिश का तुम ने
हम न कहते थे मोहब्बत में असर होने दो

ऐ शब-ए-वस्ल-ओ-शब-ए-ऐश-ए-जवानी ठहरो
मैं भी हमराह तुम्हारे हूँ सहर होने दो

रंज ओ राहत है बशर ही के लिए ऐ ‘जौहर’
वो भी दिन देख लिए यूँ भी बसर होने दो