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शौक का रंग बुझ गया, याद के ज़ख्म भर गए / जॉन एलिया

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शौक का रंग बुझ गया , याद के ज़ख्म भर गए
क्या मेरी फसल हो चुकी, क्या मेरे दिन गुज़र गए?

हम भी हिजाब दर हिजाब छुप न सके, मगर रहे
वोह भी हुजूम दर हुजूम रह न सके, मगर गए

रहगुज़र-ए-ख्याल में दोष बा दोष थे जो लोग
वक्त की गर्द ओ बाद में जाने कहाँ बिखर गए

शाम है कितनी बे तपाक, शहर है कितना सहम नाक
हम नफ़सो कहाँ तो तुम, जाने ये सब किधर गए

आज की रात है अजीब, कोई नहीं मेरे करीब
आज सब अपने घर रहे, आज सब अपने घर गए

हिफ्ज़-ए- हयात का ख्याल हम को बहुत बुरा लगा
पास बा हुजूम-ए-मारका, जान के भी सिपर गए

मैं तो सापों के दरमियान, कब से पड़ा हूँ निम-जान
मेरे तमाम जान-निसार मेरे लिए तो मर गए

रौनक-ए-बज़्म-ए-ज़िन्दगी, तुरफा हैं तेरे लोग भी
एक तो कभी न आये थे, आये तो रूठ कर गए

खुश नफास-ए-बे-नवा, बे-खबरां-ए-खुश अदा
तीरह-नसीब था मगर शहर में नाम कर गए

आप में 'जॉन अलिया' सोचिये अब धरा है क्या
आप भी अब सिधारिये, आप के चारागर गए

चारागर=चिकित्सक