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श्री सरस्वती वन्दना / यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'


बिपति बिदारीबे की, कुमति निबारबे की,
सुरति सँभारबे की, जाकी परी बान है।

सुजस दिबाइबे की, सु-रस पिबाइबे की,
सरस बनाइबे की अदभुत आन है।

भाबना बढ़ाइबे की, भाउ बिकसाइबे की,
सुख सरसाइबे की रुचि-सुचि सान है।

'प्रीतम' सुजान जान ऐसी बुद्धि दायनी कों,
बन्दों बार-बार जाकी महिमा महान है।।



तो सों ही सरंगे मन मोद के मनोरथ औ,
सुलभ समृद्धि के जु सुगम सुरुचि काज।

बैभव बिपुल भव भोग के सुभावन सों,
प्रचुर प्रभाबन सों पूरित रहंगे साज।

तेरे ही प्रसाद दुख दारिद दहंगे अब,
सुखद सजैगी तब 'प्रीतम' सु कवि लाज।

चित्त के अनन्द छन्द बन्दन करन हेतु,
ए री जगदम्ब मेरे रसना पै बैठ आज।।





तेरे ही बिहरिबे कों अजिर बनायौ हिय,
भाबना के भौनन में सुभग सजाये साज।

कल्पना कुसुम कमनीय बिकसित भए,
भाग भौर भ्रमन हूँ करें जहाँ गंध काज।

'प्रीतम' सुकवि काव्य कौमुदी खिली है बेलि,
मेल की थली है जित तेरौ ही रहैगौ राज।

साँच जिय जान, आन छन्दन प्रबन्ध हेतु-
ए री जगदम्ब मेरे रसना पै बैठ आज।।



सरस बती हौ मातु, सरस स्रुतीन गायौ,
सरस दै सुधी निधी राखौ मति मन्द ना।

सरस सु ग्रन्थ बीना धार हार धौरौ सुभ्र,
हँसन बसन सुभ्र जा के सम चन्द ना।

फन्द ना रहें हैं कछू, ओपै जो तिहारी दया,
मो पै करौ त्यों ही, जो पै रहें दुख द्वन्द ना।

'प्रीतम' कबिन्द बृन्द छन्दन सराहिबे कों,
बानी मम करै बीना पानी की सु बन्दना।।



भारत की भब्यता कों, भावन की स्वच्छता कों,
अच्छ रच्छ लच्छन प्रतच्छ ह्वै प्रसारती।

राष्ट्र हित एकता कों, बुद्धि की बिबेकता कों,
जग-जन जीवन में नेकता उभारती।



नित नव गहन में नेह की निकुंज रचि,
बनि अलि मधुरिम गुनन गुंजारती।

'प्रीतम' निधि आरती कों बानी ते उतारती, औ,
गावत जस भारती, जै-जै रस भारती।।



तेरी ही कृपा ते मेरी बिपति नसैगी मातु,
सुमति सजैगी एक सुरति तिहारी पै।

'प्रीतम' सुकवि रस रसना रसैगी जब,
आय निबसैगी हिय-हंस की सबारी पै।

भावना लसैगी बुद्धि भाग्य की बिधाता बन,
वर बिलसैगी बानी बोलिबे की बारी पै।

ए हो बीन बारी औ कमल कर धारी अब,
दीजै वर आज शुद्ध साधना हमारी पै।।



बानी के बोलिबे की, सु सब्द रस घोलिबे की,
भाव अनमोल की जु हिय अनुरक्ति दै।

बासना बिलासिता ते करि कें बिलग मन,
धन्य कर जन्म चरणारबिंद भक्ति दै।

त्रास ना रहें ता सों सु तन में तनक कहूँ,
ऐसी दुर्व्यसना ते बेगि ही बिरक्ति दै।

'प्रीतम' सुकवि उक्ति साधना ससक्त हेतु,
ए री मातु मेरी, मो करन में सु-सक्ति दै।।



जय जयति बीना बादिनी सुर साधिनी माँ सारदे।
मन मोहिनी जन मोद मति गो दोहिनी अनुसार दे।।
रस रागिनी अनुरागिनी भव भाग के सुख सार दे।
वैभव बिमल जस हंस वाहिनि बिपुल बिस्व प्रसार दे।।

कर कलित कीरत कामना कर पूर्न हे कमलासने।
करमाल पुस्तक धारिनी सुभ सारिनी मृदुभासने।।
सुचि स्वेत बसना सरस रसना रुचिर रम्य सुहासने।
कवि कल्पना कृति काव्य कलिका कुंज पुंज बिकासने।।

हे गुन गिरा गोतीत गम्या गान धुनि झंकारनी।
रति गति सुगमना तरनि तुम भव सिन्धु की हौ तारिनी।।
निज जन मनोरथ पूरि पुनि-पुनि भाव भृंग बिहारिनी।
माँ भारती हौ बिस्व के तुम कोटि कष्ट निबारिनी।।

जय जयति जग अघ हारिनी, हित कारिनी, चित चायिनी।
सदुपायनी हरसायनी, हिय सरस रस सर पायिनी।।
सुर सिद्धि दायिनि, बुधि प्रदायिनि, जननि जन अनुपयिनी।
'प्रीतम' प्रवर जिव्हाग्र बसि वर देहु हे वरदायिनी।।