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सँकरे गलियारे / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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टकराती देह बहुत सँकरे गलियारे,
कैसे चलना होगा-
हाँक बिना मारे।
दस्तक देने पर भी द्वार नहीं खोले,
पीट ओट होते ही गूँगापन बोले;
कोलाहल में डूबी दर्द भरी आहें,
दिखती हर ओर उठी ललचायी बाहें
हानि-लाभ के-
बढ़ते जाते अँधियारे।
आ गये वहाँ पर हम, तेज जहाँ धारा,
रखते ही हाथ, धार बन रहा किनारा;
लगते ही पाँव जबकि सेतु धसक जायें,
पार उतारेंगी फिर कौन पताकायों;
कब रहे प्राण
इन बहावों के मारे।
कुछ न करे तृष्णा पर बैठी पगुराये,
बिना पूछे दर्प छतों पर पतंग उड़ाये;
बौद्धिक षडयन्त्रों के अन्धड़ हैं उड़ते,
नफरत के बालू कण आँखों में गड़ते;
जन-जन अवतार धरे
शक्ति को उतारे
क्या होगा काम एक राम के पुकारे।