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संक्रान्ति पर्व / अमरेंद्र

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" आज तक देखा न था, कैसे छिपा था नाथ,
मेघवन भी दस वनों में है, न जानी बात;
कब बताया, है मलयवन चंपवन के पास,
मैं कहाँ थी जानती यह सुरभियों का रास।

" पास ही तो प्रमदवन संग रोमवन का प्रांत
तेज गति की है हवा पर वृक्ष कितने शांत,
दूर तक फैले हुए ये कौशिकी के पार,
था कभी देखा नहीं वन का मृदुल संसार। "

मुग्ध खोई थी वृषाली और भी वसुषेन,
हर्ष से पुलकित कहा, " यह सब पिता की देनµ
यह खड़ा जो मेघवन है, वंश-कुल की छाँह,
आँधियों का यह शयनगृह, बादलों की बाँह।

" कौन-सा है वृक्ष ऐसा जो यहाँ पर है न?
सब दिशाओं और दिकपालों के बँधते नैन;
मैं करूँ किसकी प्रशंसा, कौन इनमें हीन,
रूप-गुण में कोई भी किससे कहाँ है दीन।

" प्राण, से प्यारे अधिक हैं ये समुन्नत शाल,
छू नहीं सकता ज़रा जिसको, न जिसको काल;
ये सघन से देवदारु, नागवंशी बाँस,
बाँसुरी के बोल में बजती हैं जिनकी साँस।

" स्नेह के सींचे हुये ये सल्लकी, सिंधुआर,
जिनके नीचे झुरमुटोें में सज रहे कचनार;
या कि लगता है मुझे हर बार-ही-हर बार,
मेरी बाँहों में तुम्हारा सो रहा है प्यार।

" और ये जो ताड़ हैं, पर ताड़ ही न मान,
ये हमारे अंग-कुल की हैं अखंडित शान;
पास में शीशम खड़े ये, बाहुओं से भीम,
रक्त के रक्षक हमारे वैद्य फैले नीम।

" चन्दनांे की पाँत लम्बी, पीपलों की रेख,
कोविदारों, अर्जुनों को साथ हँसते देख;
और मेरा वट बली वह, बाहु शत-शत डार,
है खड़ा कब से लिए सर पर अखिल संसार।

" पाँवों में सिन्धु समेटे और सर पर वायु,
छोड़ आये हैं करोड़ों वर्ष पहले आयु;
झूमते जब इन वनों के वृक्ष हो उन्मत्त,
जीत कर आए हो सैनिक मेरे जैसे, सत्त।

" जंगलों की गूँज जैसे अस्त्रा की झनकार,
और जैसे दब रही धरती हो पद के भार;
देखता हूँ जब वनों के वृक्ष, होकर मौन,
सैकड़ों छन्दों को मन में सजने लगता कौन?

" बिन रुके मैं आ गया, जब भी हुआ मन श्रांत,
एक पल में हो गया हूँ योगियों-सा शांत"
सुन तनिक सिहरी, वृषाली पर दिखा न भाव,
जो प्रकट था सामने में बस क्षणिक अनुभाव।

दृष्टि को वंकिम किए कुछ ले अधर पर हास,
पूछ बैठी वह बहुत ही और होकर पासµ
" इस विजन में! फिर अकेले! किस तरह मन शांत?
कुछ नहीं समझी पहेली, भेद कहिए कांत। "

मुग्ध खोई थी वृषाली और भी वसुषेन,
हर्ष से पुलकित कहा, " यह सब पिता की देन;
" हे प्रिये! किसने कहा यह वन विजन-जनहीन,
यह यहाँ के भंगलों के मोद से उड्डीन।

" वृक्ष के ही बीच जिनके खिलखिलाते प्राण,
बाँसुरी ही कर्ण जिनके, सुर ही जिनके घ्राण;
हाथ है शीतल हवा, तो छवि वनों की, नैन,
जब यहाँ सोता दिवस है, जागती है रैन।

" मेघवन के जो निवासी, देवता के अंश,
दूर इनसे पुर-नगर के छल-कपट के दंश;
जब कभी इनसे मिलोगी खिल उठेगा गात,
भंगलों के नाम पर यह अंग भी विख्यात। "

सुन, वृषाली के नयन फैले, न फूटे बोल
पर तुरत ही पूछ बैठी, चेतना को झोल
" क्या कभी पुरवासियों से ये करेंगे नेह?
पेड़, पत्ते, डालियाँ जिनके लिए गृह-गेह! "

रुक गया वसुषेन कुछ सोचा, कहा हो शांत,
" पुर नगर ही लोक है क्या? और वन लोकांत?
हम नगर के वासियों की बस यही है भूल,
वननिवासी कुछ अगर, तो माटी, पत्थर, धूल!

" भूलते हैं, ये हमारे आदि की पहचान,
अंग के भंगल, विभासुत; देवता का ध्यान;
जब कभी हमसे ही होती शान्ति इनकी भंग,
कोप से तब काँपता है बज्र बनकर अंग।

" तब नगर की नींद को लगता ग्रहण है घोर,
मोतियों, हीरांे की आँखों में झलकते लोर;
पर हुआ ऐसा नहीं, यह इसलिए तो शान्ति,
अंग के विधुभाल पर है चन्द्रमणि की कान्ति। "

और फिर सहसा रुका था, कर्ण धारे मौन,
जानना ज्यों चाहता हो, हाँक देता कौन?
कुछ वृषाली समझ पाती, कह उठा राधेय,
जो अपेय हो, उसको ही अपना बना कर पेयµ

"आज मैं हूँ मेघवन में, पर तुम्हें क्या ज्ञात?"
हस्तिपुर जाने की मेरी हो रही है बात?
कल सुयोधन का निमंत्राण लाया है वह दूत,
आज से ही हो रहा है मन मेरा अवधूत।

" देखना कब हो न जाने मेेघवन को घूम
यह अकारण ही नहीं है मोह का यह धूम। "
यह सुना तो झनझनाई थी वृषाली खूब,
और फिर कहने लगी कुछ शोक-भय में डूबµ

" यह बताया ही नहीं, कि किसलिए, क्या काम?
हस्तिपुर का भाग्य क्या फिर हो गया है वाम?
बचपने से सुनती आई हूँ न क्या-क्या बात,
स्वजनों से स्वजनों का अप्रकट छल-घात।

" और भी कितनी ही बातें हैं पिता से ज्ञात,
अब अचानक आ पड़ी क्या, कुछ बताएँ नाथ! "
क्या बताता कर्ण उसको, जो मिला संकेत,
फिर वही चन्दन विपिन में नाचता था प्रेत।

चुप रहा था एक क्षण, फिर खींच ऊँची साँस,
कह उठा, ज्यों खोलता हो; कंठ पर की फाँसµ
" हस्तिपुर से आया था वह दूत ले संदेश,
जो सुनाऊँगा तुम्हें तो होेगा निश्चय क्लेश।

" पर तुम्हीं से कुछ छुपाना क्या, सुनो सब बात,
मित्रा मेरा अब सुयोधन चाहता है साथ;
साथ वह भी इसलिए, श्यामा हो उनकी नार,
क्या नहीं नर से कराता भोग का संसार।

" इन्द्रियों की वासना की भीष्म उठती वायु,
लील लेती है क्षणों में नीति-नय की आयु;
घेरती है प्राण को बनकर तमिश्रा-जाल,
नाच उठता है मनुज पर कोटि फन का व्याल।

" मित्रा को संदेश भेजा, ' यह नहीं शुभ कर्म
श्रेष्ठ जो स्वीकार हो वह मानवोचित धर्म। '
पर कहाँ कुछ भी झुका, देता रहा सब दाव,
टूट न जाए भँवर के बीच घिरती नाव।

" दे दिया संदेश आने का, बना लाचार,
देखना है क्या लिखा है नियति के उस पार;
जो लिखा हो, दृष्टि से ओझल रहे क्यों बात,
स्यात अपनी बाँहों से मैं रोक लूँ उत्पात। "

यह सुना तो हो गई श्री से विषाली हीन,
शांति झलकी एक क्षण को, ज्यों निशाकालीन;
पर तुरत ही रोक कर मन के निराश्रित भाव,
कर्ण के सम्मुख रखा था रोषमिश्रित दावµ

" पर झुके क्यों? यह कहाँ दीदी के हित में, नाथ!
हूँ विकल कि सन्निकट है काल का उत्पात;
रोकिए यह! क्रूरतम है भाग्य का यह खेल,
चुप हुये हो, पाप की जब बढ़ रही है बेल?

" क्या पुतलियाँ हम कि नाचें परपुरुष-संकेत?
नर अचल है और नारी शून्य में बस रेत?
जो अधम को धीर बन देखे, तो यह भी पाप,
नाथ मेरे वीर हैं, तो लें नहीं अभिशाप!

" क्या लिया निर्णय है कहिए, जानूँ मन की बात,
भोर के मणि भाल पर कैसी ये पसरी रात!
मित्रा का सम्मान होगा, आ त्रिया का मान?
देखती हूँ दोपहर में डूबता दिनमान! "

कर्ण को भी छू गई बातें, जली-सी रेत,
यूँ लगा ज्यों विस्मृति को आ गया हो चेत;
पर हृदय-मन शांत पहिले-सा, नहीं आवेग,
बाँसुरी-स्वर में कहा नभ के हटाते मेघµ

" व्यर्थ है शंका तुम्हारी, मैं सुयोधन साथ,
अब सुनो, मैं हूँ सुनाता, गुप्त जो है बातµ
द्रोपदी की भक्ति को शिव ने दिया वरदान,
' पाँच पति तुमको मिलेंगे, यह तो निश्चित मान;

' क्योंकि तुमने क्रम से मांगा वर है पंचम वार
पाँच वर तुमको मिलेंगे, वर करो स्वीकार। '
" द्रोपदी का मन थका-सा लग रहा था श्रान्त,
घिर गया मणिदेश में हो ज्यों सघनतम ध्वांत।

" कुछ नहीं थी बोल पाई, कर गई स्वीकार,
जल रहा था नील मणि का ही मृदुल संसार;
यह कथा गुरु से सुनी थी, पापहरणी पास,
देवता के वर बहाने भाग्य का उपहास।

" और जब मुझको, सुयोधन से मिला संवाद,
वह कथा मुझको अचानक आ गई थी याद;
सोचकर यह, हो कोई, पर मैं नहीं निरुपाय,
एक नारी पर नियति का, भाग्य का अन्याय!

" ले लिया निर्णय कि विधि का चल न सकता दाव,
रोक लूँगा धार को जिसमें फँसी है नाव!
नर वही जो नारी का रख कर चले सब मान,
टूट न जाए कहीं से स्वर्ग की मृदु तान।

" सृष्टि यह मधु गंध से सुरभित, सुधामय, सौम्य,
तब चमकता है जगत यह बन निशा में धौम्य;
पाप है वह, नारी मन के जो हुआ विपरीत,
शोर बन जाता वही जब टूटता संगीत।

" जो रहा भयभीत, मन को कर सकूँ मैं शान्त,
भ्रान्त जितना हो चुका है, अब नहीं हो भ्रान्त;
जानता हूँ, मिटने से इससे रहा भी दोष,
पर मिलेगा कुछ तो मेरे मन-हृदय को तोष।

" चाहता कब हूँ, वृषाली, छोड़ जाऊँ अंग,
मेघवन में यह तुम्हारा कल्पतरु-सा संग!
पर विवश हूँ, आ रही है जैसे कोई हाँक,
मैं खड़ा कर्त्तव्यपथ पर मन लिए दो फाँक।

" तुम इधर हो, मेघवन है, पुर-महल के लोग,
देवता को भी कहाँ है प्राप्य ऐसा भोग!
सुरनदी के तीर पर यह अंग मेरा देश,
ज्यों विभांडक मुख से निकला हो अमर उपदेश।

" ऋंगऋषि के पुण्य का खिलता कुसुम यह चम्प,
काम-रति के साथ से हो देह का मृदु कंप!
पर नहीं इतना ही मेरे पूर्वजों का अंग,
कर्ण-ग्रीवा से लटकता मणि-किरण का संग।

" है निमंत्राण, तो मुझे भी छोड़ना है नेह,
शीघ्र ही पर लौट आऊँगा पुनः गृह-गेह;
उस समय तक भार तुम पर, तुम सँभालो राज,
जिस तरह तुमने सँभाला है सहज गृहकाज।

" पूर्ण होते कार्य लौटूँगा तुरत अविलम्ब,
भीगने देना नहीं किंचित कभी ये अम्ब;
तुम हँसोगी, तो हँसेगा अंग का हर छोर,
रात में भी हँस पड़ेगा रोज स्वर्णिम भोर।

" लौटें वृषाली, अब निशा भी हो गई है मौन,
नींद को देता निमंत्राण मेघवन में कौन;
पत्तियों पर सो गई हैं पलक मूँदे ओस,
चुप है गंगा और चानन, चुप सहस्त्रों कोस। "

हो रही पदचाप; साँसे मालती की
धड़कनें उड़ती पावन पर है नदी की।