भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

संग-दिल है वो तो क्यूँ उस का गिला मैंने किया / फ़राज़

Kavita Kosh से
Bohra.sankalp (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:52, 17 दिसम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अहमद फ़राज़ |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> संग-दिल है वो तो क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

संग-दिल है वो तो क्यूँ उस का गिला मैंने किया
जब के ख़ुद पत्थर को बुत, बुत को ख़ुदा मैंने किया

कैसे ना-मानूस लफ़्ज़ों की कहानी था वो शख़्स
उस को कितनी मुश्क़िलों से तर्जुमा मैंने किया

वो मेरी पहली मोहब्बत ,वो मेरी पहली शिकस्त
फिर तो पैमान-ए-वफ़ा सौ मर्तबा मैंने किया

हूँ सज़ा-वार-ए-सज़ा क्यूँ जब मुक़द्दर में मेरे
जो भी उस जान-ए-जहां ने लिख दिया, मैंने किया

वो ठहरता क्या के गुज़रा तक नहीं जिसके लिए
घर तो घर हर रास्ता आरास्ता मैंने किया

मुझ पे अपना जुर्म साबित हो ना हो लेकिन 'फ़राज़'
लोग कहते हैं के उस को बेवफ़ा मैंने किया