"संघर्ष / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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+ | नाचता कर निर्मम में। | ||
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+ | मौन पददलित व्यवस्था। | ||
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+ | श्वास लिया, टंकार किया | ||
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+ | दुर्लक्ष्यी धनु ने। | ||
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+ | विषम उंचास-वात थे, | ||
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+ | मरण-पर्व था, नेता | ||
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+ | आकुलि औ' किलात थे। | ||
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+ | इसको मत जाने देना" | ||
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+ | किंतु सजग मनु पहुँच | ||
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+ | गये कह "लेना लेना"। | ||
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+ | "कायर, तुम दोनों ने ही | ||
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+ | उत्पात मचाया, | ||
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+ | अरे, समझकर जिनको | ||
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+ | अपना था अपनाया। | ||
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+ | तो फिर आओ देखो | ||
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+ | कैसे होती है बलि, | ||
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+ | रण यह यज्ञ, पुरोहित | ||
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+ | ओ किलात औ' आकुलि। | ||
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+ | और धराशायी थे | ||
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+ | असुर-पुरोहित उस क्षण, | ||
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+ | इड़ा अभी कहती जाती थी | ||
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+ | "बस रोको रण। | ||
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+ | भीषन जन संहार | ||
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+ | आप ही तो होता है, | ||
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+ | ओ पागल प्राणी तू | ||
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+ | क्यों जीवन खोता है | ||
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+ | क्यों इतना आतंक | ||
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+ | ठहर जा ओ गर्वीले, | ||
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+ | जीने दे सबको फिर | ||
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+ | तू भी सुख से जी ले।" | ||
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+ | किंतु सुन रहा कौण | ||
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+ | धधकती वेदी ज्वाला, | ||
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+ | सामूहिक-बलि का | ||
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+ | निकला था पंथ निराला। | ||
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+ | रक्तोन्मद मनु का न | ||
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+ | हाथ अब भी रुकता था, | ||
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+ | प्रजा-पक्ष का भी न | ||
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+ | किंतु साहस झुकता था। | ||
23:10, 6 मार्च 2007 का अवतरण
लेखक: जयशंकर प्रसाद
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आह न समझोगे क्या
मेरी अच्छी बातें,
तुम उत्तेजित होकर
अपना प्राप्य न पाते।
प्रजा क्षुब्ध हो शरण
माँगती उधर खडी है,
प्रकृति सतत आतंक
विकंपित घडी-घडी है।
साचधान, में शुभाकांक्षिणी
और कहूँ क्या
कहना था कह चुकी
और अब यहाँ रहूँ क्या"
"मायाविनि, बस पाली
तमने ऐसे छुट्टी,
लडके जैसे खेलों में
कर लेते खुट्टी।
मूर्तिमयी अभिशाप बनी
सी सम्मुख आयी,
तुमने ही संघर्ष
भूमिका मुझे दिखायी।
रूधिर भरी वेदियाँ
भयकरी उनमें ज्वाला,
विनयन का उपचार
तुम्हीं से सीख निकाला।
चार वर्ण बन गये
बँटा श्रम उनका अपना
शस्त्र यंत्र बन चले,
न देखा जिनका सपना।
आज शक्ति का खेल
खेलने में आतुर नर,
प्रकृति संग संघर्ष
निरंतर अब कैसा डर?
बाधा नियमों की न
पास में अब आने दो
इस हताश जीवन में
क्षण-सुख मिल जाने दो।
राष्ट्र-स्वामिनी, यह लो
सब कुछ वैभव अपना,
केवल तुमको सब उपाय से
कह लूँ अपना।
यह सारस्वत देश या कि
फिर ध्वंस हुआ सा
समझो, तुम हो अग्नि
और यह सभी धुआँ सा?"
"मैंने जो मनु, किया
उसे मत यों कह भूलो,
तुमको जितना मिला
उसी में यों मत फूलो।
प्रकृति संग संघर्ष
सिखाया तुमको मैंने,
तुमको केंद्र बनाकर
अनहित किया न मैंने
मैंने इस बिखरी-बिभूति
पर तुमको स्वामी,
सहज बनाया, तुम
अब जिसके अंतर्यामी।
किंतु आज अपराध
हमारा अलग खड़ा है,
हाँ में हाँ न मिलाऊँ
तो अपराध बडा है।
मनु देखो यह भ्रांत
निशा अब बीत रही है,
प्राची में नव-उषा
तमस् को जीत रही है।
अभी समय है मुझ पर
कुछ विश्वास करो तो।'
बनती है सब बात
तनिक तुम धैर्य धरो तो।"
और एक क्षण वह,
प्रमाद का फिर से आया,
इधर इडा ने द्वार ओर
निज पैर बढाया।
किंतु रोक ली गयी
भुजाओं की मनु की वह,
निस्सहाय ही दीन-दृष्टि
देखती रही वह।
"यह सारस्वत देश
तुम्हारा तुम हो रानी।
मुझको अपना अस्त्र
बना करती मनमानी।
यह छल चलने में अब
पंगु हुआ सा समझो,
मुझको भी अब मुक्त
जाल से अपने समझो।
शासन की यह प्रगति
सहज ही अभी रुकेगी,
क्योंकि दासता मुझसे
अब तो हो न सकेगी।
मैं शासक, मैं चिर स्वतंत्र,
तुम पर भी मेरा-
हो अधिकार असीम,
सफल हो जीवन मेरा।
छिन्न भिन्न अन्यथा
हुई जाती है पल में,
सकल व्यवस्था अभी
जाय डूबती अतल में।
देख रहा हूँ वसुधा का
अति-भय से कंपन,
और सुन रहा हूँ नभ का
यह निर्मम-क्रंदन
किंतु आज तुम
बंदी हो मेरी बाँहों में,
मेरी छाती में,"-फिर
सब डूबा आहों में
सिंहद्वार अरराया
जनता भीतर आयी,
"मेरी रानी" उसने
जो चीत्कार मचायी।
अपनी दुर्बलता में
मनु तब हाँफ रहे थे,
स्खलन विकंपित पद वे
अब भी काँप रहे थे।
सजग हुए मनु वज्र-
खचित ले राजदंड तब,
और पुकारा "तो सुन लो-
जो कहता हूँ अब।
"तुम्हें तृप्तिकर सुख के
साधन सकल बताया,
मैंने ही श्रम-भाग किया
फिर वर्ग बनाया।
अत्याचार प्रकृति-कृत
हम सब जो सहते हैं,
करते कुछ प्रतिकार
न अब हम चुप रहते हैं
आज न पशु हैं हम,
या गूँगे काननचारी,
यह उपकृति क्या
भूल गये तुम आज हमारी"
वे बोले सक्रोध मानसिक
भीषण दुख से,
"देखो पाप पुकार उठा
अपने ही सुख से
तुमने योगक्षेम से
अधिक संचय वाला,
लोभ सिखा कर इस
विचार-संकट में डाला।
हम संवेदनशील हो चले
यही मिला सुख,
कष्ट समझने लगे बनाकर
निज कृत्रिम दुख
प्रकृत-शक्ति तुमने यंत्रों
से सब की छीनी
शोषण कर जीवनी
बना दी जर्जर झीनी
और इड़ा पर यह क्या
अत्याचार किया है?
इसीलिये तू हम सब के
बल यहाँ जिया है?
आज बंदिनी मेरी
रानी इड़ा यहाँ है?
ओ यायावर अब
मेरा निस्तार कहाँ है?"
"तो फिर मैं हूँ आज
अकेला जीवन रभ में,
प्रकृति और उसके
पुतलों के दल भीषण में।
आज साहसिक का पौरुष
निज तन पर खेलें,
राजदंड को वज्र बना
सा सचमुच देखें।"
यों कह मनु ने अपना
भीषण अस्त्र सम्हाला,
देव 'आग' ने उगली
त्यों ही अपनी ज्वाला।
छूट चले नाराच धनुष
से तीक्ष्ण नुकीले,
टूट रहे नभ-धूमकेतु
अति नीले-पीले।
अंधड थ बढ रहा,
प्रजा दल सा झुंझलाता,
रण वर्षा में शस्त्रों सा
बिजली चमकाता।
किंतु क्रूर मनु वारण
करते उन बाणों को,
बढे कुचलते हुए खड्ग से
जन-प्राणों को।
तांडव में थी तीव्र प्रगति,
परमाणु विकल थे,
नियति विकर्षणमयी,
त्रास से सब व्याकुल थे।
मनु फिर रहे अलात-
चक्र से उस घन-तम में,
वह रक्तिम-उन्माद
नाचता कर निर्मम में।
उठ तुमुल रण-नाद,
भयानक हुई अवस्था,
बढा विपक्ष समूह
मौन पददलित व्यवस्था।
आहत पीछे हटे, स्तंभ से
टिक कर मनु ने,
श्वास लिया, टंकार किया
दुर्लक्ष्यी धनु ने।
बहते विकट अधीर
विषम उंचास-वात थे,
मरण-पर्व था, नेता
आकुलि औ' किलात थे।
ललकारा, "बस अब
इसको मत जाने देना"
किंतु सजग मनु पहुँच
गये कह "लेना लेना"।
"कायर, तुम दोनों ने ही
उत्पात मचाया,
अरे, समझकर जिनको
अपना था अपनाया।
तो फिर आओ देखो
कैसे होती है बलि,
रण यह यज्ञ, पुरोहित
ओ किलात औ' आकुलि।
और धराशायी थे
असुर-पुरोहित उस क्षण,
इड़ा अभी कहती जाती थी
"बस रोको रण।
भीषन जन संहार
आप ही तो होता है,
ओ पागल प्राणी तू
क्यों जीवन खोता है
क्यों इतना आतंक
ठहर जा ओ गर्वीले,
जीने दे सबको फिर
तू भी सुख से जी ले।"
किंतु सुन रहा कौण
धधकती वेदी ज्वाला,
सामूहिक-बलि का
निकला था पंथ निराला।
रक्तोन्मद मनु का न
हाथ अब भी रुकता था,
प्रजा-पक्ष का भी न
किंतु साहस झुकता था।
'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''