भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

संतोषम् परम् सुखम् / महेश चंद्र पुनेठा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:59, 26 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश चंद्र पुनेठा |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> पहली-पहली …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पहली-पहली बार
दुनिया बड़ी होगी एक कदम आगे
जिसके कदमों पर
अंसतोषी रहा होगा वह पहला।


किसी असंतुष्ट ने ही देखा होगा
पहली बार संुदर दुनिया का सपना


पहिए का विचार आया होगा
पहली-पहली बार
किसी असंतोषी के ही मन में
आग को भी देखा होगा पहली बार गौर से
किसी असंतोषी ने ही ।


असंतुष्टों ने ही लाॅघे पर्वत पार किए समुद्र
खोज डाली नई दुनिया


असंतोष से ही फूटी पहली कविता
असंतोष से एक नया धर्म


इतिहास के पेट में
मरोड़ उठी होगी असंतोष के चलते ही
इतिहास की धारा को मोड़ा
बार-बार असंतुष्टों ने ही
 
उन्हीं से गति है
उन्हीं से उष्मा
उन्हीं से यात्रा पृथ्वी से चाॅद
और
पहिए से जहाज तक की


असंतुष्टों के चलते ही
सुंदर हो पाई है यह दुनिया इतनी
असंतोष के गर्भ से ही
पैदा हुई संतोष करने की कुछ स्थितियाॅ ।


फिर क्यांे
सत्ता घबराती है असंतुष्टों से
सबसे अधिक


क्या इसीलिए कहा गया होगा
संतोषम् परम् सुखम् ।