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संशयात्मा / पंकज परिमल

मैं विनष्ट होने का ख़तरा उठाकर भी
अपनी आत्मा में
संशय को जीवित रखना चाहता हूँ
 
इस विपरीत समय में
मैं विपरीत बुद्धि से काम लेने से
बाज नहीं आना चाहता
मैं जंगलों में
जीवन की अनन्त सम्भावनाएँ छोड़कर
एक दिन भागूँगा शहर की ओर
जहाँ मृत्यु सजधज कर
मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी
 
रँग की नाँद में गिरने पर भी
दुर्भाग्य मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा
मेरा राज करना भी
मेरी अकाल-मृत्यु का कारण बनेगा
एक दिन
फिर भी मैं ज़रूर ढूँढ़ लूँगा
अपनी शक्ति-भर
राज करने की सम्भावनाएँ

तथाकथित खट्टे अँगूरों के लिए
मैं बार-बार उछलूँगा
और अपनी हड्डियाँ तुड़वाऊँगा

अच्छा मित्र !
तुम्हारी नीतिकथाओं, सूक्तियों
और चेतावनियों के लिए
तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद