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सखि ये कैसा मंजर देखा / शीला तिवारी

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सखि ये कैसा मंजर देखा, वर्जनओं का अवतल देखा
मन घायल पंछी सा व्यथित, बातों के प्रहार से छलनी अंतस देखा
चले गए बैकुण्ठ धाम 'वो' श्रृंगार श्री को साथ लिए गए
क्यों समाज पीछे पड़ा मुझको श्रृंगार विहीन किए
मेरा सुहाग मिट गया पर नहीं मिटा दिल से उनकी छवि
आज भी मैं वहन कर रही, पति के अनगिनत सपनों की बही
रंगों से नाता मेरा तोड़ना, चूड़ियों को फोड़ना
सांसे थम गई थी मेरी, ऐसा विकृतियों को क्यों परोसना
क्यों मैं अचानक 'उनके' चले जाने से
श्रृंगार विहीना बन जाऊँ
कानों में तीक्ष्ण बाणों कहर कैसे सह पाऊँ
सब बनते मरहम मेरा पर यहाँ तो उलटा रीत है
सखि ये कैसा मंजर देखा, वर्जनाओं का अवतल देखा
मन घायल पंछी सा व्यथित, बातों के प्रहार से छलनी अंतस देखा
मैं पूछती हूँ प्रश्न आज समाज से
स्त्री ही क्यों देखे, ऐसे विभत्स कुरीति झेले
कर पाओं कुछ अच्छा ऐसा क्यों न नियम में ढले
समाज किंचित नहीं ढिगता अपने कुरीतियों के वहन को
कर रहे कुठाराघात मेरी बिंदियाँ, चूड़ी वहन को
क्यों मैं पायल विहीन हो जाऊँ, सादे वस्त्र में ढल जाऊँ
पुत्र, पौत्र से भरी पूरी हूँ क्यों मैं अबला बन जाऊँ
सखि ये कैसा मंजर देखा, वर्जनओं का अवतल देखा
मन घायल पंछी सा व्यथित, बातों के प्रहार से छलनी अंतस देखा
थी मैं नवयौवना सुदर गौर वर्णा
नहीं रखते थे 'वो' मुझे कभी श्रृंगार विहीना
रहती थी मैं सज सँवर, हर वक्त रहती थी उन्हें मेरी फ़िकर,
आज उनके जाने पर
ऐ सामाज, क्यों मैं हो जाऊँ बहरूपिया
जो उन्हें ना पसंद, क्यों करूँ वह काम मैं
क्यों सभी दे रहे दुहाई मुझे कुत्सित कुरीतियों, नीतियों की
तोड़ती हूँ मैं सारी वर्जनाएं जो मुझे हर पल और तोड़ती
पुरुष नहीं मानता कभी कठोर मान्यताएं
नारी को क्यों अपशकुन में झोकती
सखि ये कैसा मंजर देखा, वर्जनओं का अवतल देखा।
मन घायल पंछी सा व्यथित, बातों के प्रहार से छलनी अंतस देखा
चले गए वो क्या ये काफी नहीं था, मेरी हृदय की पीड़ा के लिए
सामाजिक कुरीतियों, कुसंस्कार का बोझा क्यों हम वहन करें
मैं बनी रहूँगी कुलिना मुझसे मत दूर करो चूड़ी, बिंदिया व गहना
मैं भरे पूरे परिवार की नारी
इन्कार करती हूँ कुरीतियों को मानना
अंगार बन बैठी समझ लो
कुत्सित कुरीतियों नीतियों को, नहीं मुझे नहीं ढोना
सखि ये कैसा मंजर देखा, वर्जनओं का अवतल देखा
मन घायल पंछी सा व्यथित, बातों के प्रहार से छलनी अंतस देखा