भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सखि वे मुझसे कह कर जाते / मैथिलीशरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=मैथिलीशरण गुप्त
 
|रचनाकार=मैथिलीशरण गुप्त
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita‎}}
 +
{{KKPrasiddhRachna}}
 +
<poem>
 +
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
 +
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
  
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,<br>
+
मुझको बहुत उन्होंने माना
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?<br><br>
+
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
 +
मैंने मुख्य उसी को जाना
 +
जो वे मन में लाते।
 +
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
  
मुझको बहुत उन्होंने माना<br>
+
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
फिर भी क्या पूरा पहचाना?<br>
+
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
मैंने मुख्य उसी को जाना<br>
+
हमीं भेज देती हैं रण में -
जो वे मन में लाते।<br>
+
क्षात्र-धर्म के नाते
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br><br>
+
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
  
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,<br>
+
हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,<br>
+
किसपर विफल गर्व अब जागा?
हमीं भेज देती हैं रण में -<br>
+
जिसने अपनाया था, त्यागा;
क्षात्र-धर्म के नाते।<br>
+
रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br><br>
+
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
  
हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,<br>
+
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
किसपर विफल गर्व अब जागा?<br>
+
पर इनसे जो आँसू बहते,
जिसने अपनाया था, त्यागा;<br>
+
सदय हृदय वे कैसे सहते ?
रहे स्मरण ही आते!<br>
+
गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br><br>
+
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
  
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,<br>
+
जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
पर इनसे जो आँसू बहते,<br>
+
दुखी न हों इस जन के दुख से,
सदय हृदय वे कैसे सहते?<br>
+
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ?
गये तरस ही खाते!<br>
+
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br><br>
+
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
  
जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,<br>
+
गये, लौट भी वे आवेंगे,
दुखी न हों इस जन के दुख से,<br>
+
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?<br>
+
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
आज अधिक वे भाते!<br>
+
पर क्या गाते-गाते ?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br><br>
+
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
 
+
</poem>
गये, लौट भी वे आवेंगे,<br>
+
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,<br>
+
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,<br>
+
पर क्या गाते-गाते?<br>
+
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br><br>
+

17:52, 10 जुलाई 2013 के समय का अवतरण

सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?

मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में -
क्षात्र-धर्म के नाते
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते ?
गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते ?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।