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सखी! हौं प्रीतम-प्रीति पगी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

सखी! हौं प्रीतम-प्रीति पगी।
गति-मति-रति सब स्याम, रहौं हौं उनमें सगी-बगी॥
कौन काम कैसें कब करिबौ, कहाँ कौन के संग।
सब कछु करैं-करावैं बे‌ई, रचैं नित न‌ए ढंग॥
पालन-परिचालन-चिंतन, सब भले-बुरे यौहार।
बे‌ई करैं, जहाँ जब जैसौ उनकौ होय बिचार॥
दोष, अभाव, भूल, भ्रम, त्रुटि कौ मोय न कछु मन भान।
सोच-बिचार करन कौं मोकूँ नहिं कछु ग्यानाग्यान॥
कठपुतरी उनके कर की हौं, निज मन मोहि नचावै।
खेल खिलावैं, जो कछु मेरे तिन पिय के मन भावै॥
मोय बनाय बावरी राखी, सुध-बुध रही न नेक।
तन-मन-धन चेतन मेरे सब मुरलीवारे एक॥