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सखी, खास है / कुमार रवींद्र

सखी, खास है
जनम-जनम की यह मिठास है

हम-तुम कितनी बार
इसी तट पर आये हैं
इस काया में
कितनी यादों के साये हैं

बहुत पुराना
सखी, देह का यह लिबास है

इस रेती पर
हमने रितु के गान लिखे हैं
उनमें हमको
अनगिन सूरज-चाँद दिखे हैं
   
हमने सिरजा
घने अंधेरे में उजास है

कल बीते हम नहीं रहेंगे
नेह रहेगा
वही हमारी इस मिठास की
साखी देगा

कभी न मरता
फूलों का जो महारास है