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सच्चाई का गला / महेश उपाध्याय

मारो तुम !
कहलाएँ हम अत्याचारी
सच्चाई का
गला घोंटती लाचारी ।

आजू-बाजू लगी भीड़ जो
पाँव नहीं हैं लगी चीड़ वो
डरते सब ।
आए न कहीं अपनी बारी ।

ख़ून चूस कर फूल रहे हो
और अहं में झूल रहे हो
रिश्वत तुम लो,
कहो हमें भ्रष्टाचारी ।

अस्मत लूट रहे हो जन की
भूख मिटाते हो यौवन की
देखें सब !
रोती है केवल महतारी ।