भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सच्चाई के पथ पर चलना / शीतल वाजपेयी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सच्चाई के पथ पर चलना मुश्किल है, आसान नहीं है.
पैरों के छालों को मिलता कोई भी सम्मान नहीं है.

मिले राह में मोड़ बहुत से लेकिन वो मंज़िल थोड़ी थी.
पग-पग पर जो काट रही थी,अपने जूतों की जोड़ी थी.
अपनी धुन में चलते रहना ही केवल मेरा मक़सद था.
भीड-भाड़ में चलने वाले हर राही का अपना कद था.
कोई आगे निकल गया तो कोई बैठ गया था थक कर,
क़िस्मत की हर एक किस्त का
वादा था, भुगतान नहीं है।

दुनिया को विश्वास जीतकर धोखा देने की आदत है.
पल-पल रंग बदलने वालों की अपनी-अपनी फितरत है.
दुनियादारी की मंडी में झूठों का
कीमत है ऊँची.
गाल बजाने वाली टोली ही केवल मंज़िल तक पहुँची.
ढोंग, दिखावा, आडम्बर को सारी दुनिया पूज रही है ,
सारी मानवता शापित है, क्या इसका उत्थान नहीं है?

है सागर का खारापन तो नदियों का है मीठा जल भी.
कुंठित मन के ताने हैं तो नेह-प्रेम का है संबल भी.
झूठ-कपट के अँधियारे ने माना दुनिया को लूटा है.
पर सच के दीपक के आगे दर्प तिमिर का भी टूटा है.
सच तो ये है-राहें सच की अंगारों से भरी हुईं हैं,
इन पर विरले चलते,सबको मिलता ये वरदान नहीं है.