[[Category:{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कैलाश गौतम]][[Category:कविताएँ]]|संग्रह= }}{{KKCatNavgeet}}[[Category:गीत]]<poem>
तुमने छुआ, जगा मन मेरा
सच कहता हूं हूँ मैं
मेरा तो अब हुआ सबेरा
सच कहता हूँ मैं ।
सच कहता हूं मैं काया पलट गयी गई मेरी दिनचर्या बदल गयीगईजैसे कोई फांस फंसी फाँस फँसी थी खुद ख़ुद ही निकल गयीगई खूब ख़ूब मिला तू रैन-बसेरा सच कहता हूं मैं। सारी उलझन सुलझ गयी हैहूँ मैं ।
सारी उलझन सुलझ गई है
तेरे दर्शन से
मेरे मन में समा गया तू
मन के दर्पण से
मैं हूं हूँ तेरा सांप संपेरासाँप-सँपेरासच कहता हूं हूँ मैं
आधा-तीहा नहीं रहा मैं
पूरमपूर हुआ
जैसा बाहर वैसा भीतर
मैं भरपूर हुआ
हुई रोशनी, छंटा अंधेराछँटा अँधेरासच कहता हूं मैं।हूँ मैं ।</poem>