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सच कहूँ माँ से नहीं कम मुल्क़ की मिट्टी / राम नाथ बेख़बर

सच कहूँ माँ से नहीं कम मुल्क़ की मिट्टी
ज़ख्म पे बन जाती मरहम मुल्क़ की मिट्टी।

दूर जब परदेश में आकर बसा कुछ दिन
याद में बस जाती हरदम मुल्क़ की मिट्टी।

घंटियाँ जब मंदिरों की तुम बजाते थे
चूमते फिरते रहे हम मुल्क़ की मिट्टी।

हम जियेंगे मुल्क़ में यारों सदा हँसकर
लाएगी ख़ुशियों का मौसम मुल्क़ की मिट्टी।

काट जब गर्दन सिपाही के गए दुश्मन
कर रही यारों थी मातम मुल्क़ की मिट्टी।

बेख़बर जीना हमें है मिल्लतों के साथ
चाहती मज़हब का संगम मुल्क़ की मिट्टी।