भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सजा है इक नया सपना हमारे मन की आँखों में / देवमणि पांडेय
Kavita Kosh से
सजा है इक नया सपना हमारे मन की आँखों में।
कि जैसे भोर की किरनें किसी आँगन की आँखों में।
शरारत है, अदा है और भोलेपन की ख़ुशबू है
कभी सँजीदगी मत ढूँढिए बचपन की आँखों में।
कहीं झूला, कहीं कजली, कहीं रिमझिम फुहारें हैं
खिले हैं रँग कितने देखिए सावन की आँखों में।
जो इसके सामने आए सँवर जाता है वो इंसाँ
छुपा है कौन-सा जादू भला दरपन की आँखों में।
सुलगती है कहीं कैसे कोई भीगी हुई लकड़ी
दिखाई देगा ये मंज़र किसी बिरहन की आँखों में।
फ़क़ीरी है, अमीरी है, मुहब्बत है, इबादत है
नज़र आई है इक दुनिया मुझे जोगन की आँखों में।