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सजा / अनिता भारती

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आ, अब लौट चले
उस तरह
जिस तरह परिंदे
दिन भर भटकने के बाद
जा छुपते हैं
अपने घोंसलों में

भाई-बहन और सगे-संबंधी
और
सबसे आखिर में तुम
जिसके मजबूत हाथ
खड़े थे
मेरे पीछे खंम्भे की तरह
वह हाथ
जब अचानक हटते हैं
तो दर्द
एक बड़े दरख्त के ढहने के
जैसा होता है

अम्बेडकर गांधी मार्क्स
या फिर रोज़ा, सावित्री, सीमोन
की धारा से लैस
करते हैं वादे
और चढ़ जाते हैं
समानता की नाव पर

चेतना के खुले आसमान पर
विस्तार देते हुए पाते हैं
सिद्धांतहीन जीव के विरुद्ध
लड़ने की ताकत
एक अदद दिए की लौ
विश्वास की लौ में
जूझ पड़ते है तमाम
झंझावातों में
पर जीवन की कड़वी सच्चाई का
सामना होते ही
रह जाते है
तुम यानी पुरुष
मैं यानी औरत

समता समानता से ऊपर
एक रिश्ता
जो इन शब्दों की परिधि से
बाहर है
चाहे लाख जुगत लगाओ
यह रिश्ता इन खांचों में
फिट ही नहीं होता
और लंगड़ाता है
बिना किसी पैर के शरीर की तरह
झूलता है किसी नट की तरह

तब दिल में बहते खून का रंग
लाल नहीं रह जाता
और न ही नीला
हो जाता तब वह
सफेद रंग के उस पक्षी की तरह
जो रात में
रास्ता भटक जाने के बाद
उसकी सजा पाये
कि वह रात भर किसी
अनजान बियाबान पेड़ पर
ऊँघता रहे