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सतपुड़ा / संजय अलंग


उत्कंठ भाल हरित खड़ा । सामने वो सतपुड़ा ॥

वितीपाती ठेठ से लड़ा । विदग्ध विख्यात यह बड़ा॥

मकरन्द भरा रहे अकड़ा । सुरभित सुफलित है बड़ा॥
 
तुरंगम नर्मदा,बैनगंगा से बढ़ा । जैसे बासंती पाँख पर चढ़ा॥

सर्व सुख भरा पड़ा । जब भी देख सतपुड़ा।।
 
सुरम्य परिमल यह टुकड़ा । शिफा से नहीं बिगड़ा॥
 
असचेत रहा तू खड़ा । बिगड़ विनष्ट होगा सतपुड़ा॥