भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सतपुड़ा / संजय अलंग

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:22, 5 मार्च 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय अलंग |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> उत्कं...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


उत्कंठ भाल हरित खड़ा । सामने वो सतपुड़ा ॥

वितीपाती ठेठ से लड़ा । विदग्ध विख्यात यह बड़ा॥

मकरन्द भरा रहे अकड़ा । सुरभित सुफलित है बड़ा॥
 
तुरंगम नर्मदा,बैनगंगा से बढ़ा । जैसे बासंती पाँख पर चढ़ा॥

सर्व सुख भरा पड़ा । जब भी देख सतपुड़ा।।
 
सुरम्य परिमल यह टुकड़ा । शिफा से नहीं बिगड़ा॥
 
असचेत रहा तू खड़ा । बिगड़ विनष्ट होगा सतपुड़ा॥