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सती परीक्षा / सर्ग 8 / सुमन सूरो

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सती-परीक्षा

पुरुबोॅ में उगी गेलै ललकी किरियिाँ
पछिमोॅ में डुबी गेलै चान।
पाख-पखेरू मिली गाबै सुरधुनियाँ;
बने-बने जागी गेलै प्रान॥
लोगोॅ-वेदोॅ गिलफिल बोलै-बतियाबै सब,
चलोॅ देखोॅ सीता जी के रूप।
जहाँ बैठी रामचन्द्र परीखतै सभा बीच;
सियाजी केॅ परग अनूप।
घर-द्वार छोड़ी-छोड़ी बनवासी कोल-भील,
चललै नैमिष बन ओर।
राह-बाट गाँव-गाँव चारोदिस मचिगेलै;
चलोॅ-चलोॅ चलोॅ-चलोॅ सोर।
जोगी-जती जप-जाग, फूरती पुराये काज,
नम्मा डेगोॅ गेलै सोझियाय।
वानर-सुग्रीव साथें राक्षस विभीषनोॅ के,
आगू-पाछू धारी-पाँती जाय॥
छोड़ीकेॅ अमर पुर, टूटी पड़लै आगू करी,
ब्रह्मा जी केॅ, देवता समाज,
नागलोक खल-बल, नरलोग चलोॅ-चलोॅ;
रीसी, मुनी, राजा महाराज॥
आबी गेलै, जग्य-मंडप बीच आबी गेलै,
राम, लखन चारो भाय।
आसन बिराजी गेलै रीसी मुनी जयाजोग;
बिना शब्द शान्ति गेलै छाय॥

आगूँ-आगूँ मुनिवर बालमीकी ताही पाछूँ,
सीय झुकेने आबै माथ।
ब्रह्माजी के पज्ञदू जेना श्रुति कर जोड़ी चलै,
तेन्हैं सभा-बीच जोड़ी हाथ॥

सजल नयन ढरै ढर-ढर लोर धार,
मन-बीच उमड़ै गरान।
सीयाजी केॅ देखी असहाय नाकीं लोग-बेद,
अकुलाबै कलपै परान॥

धन्य-धन्य जानकी तोहरो पतिब्रत धन्य,
रही-रही मची उठै शोर।
उचकी-उचकी देखै बुतरू जनानी सब;
अँचरा सें पोछी-पोछी लोर॥

आबी गेलै मंचनगीच दुओ आबी गेलै,
ठाढ़ी भेलै सीया धरी धीर।
उपरोॅ सें देवलोक घोरजय-जय करी;
बरसै छै फूल अधीर॥

बरसै छै अनगिन फूल देवता सभा स्तब्ध निरजासै छै,
उमड़ै छै अजगुत भाव-हिलोरा धरती अंबर भाँसै छै।
छै बरुण पुत्र खाड़ोॅ लैकेॅ सीता केॅ आगू मंच पास;
टकटकी लगैने जन-जन छै, छै सबके मन में एक आस॥

कत्तेॅ दिन बाद मिलन होतै, रामोॅ के सीता सें अधीर,
कत्तेॅ दिन पर मिटतै सुख सें चिर अवधपुरी के गूढ़ पीर।
‘हे राम’ घोर गंभीर स्वरोॅ से बालमीकि मुनि बोलै छै;
जन-जन में उत्सुक भाव, शेष ब्रह्मा मुनि आसन डोलै छै॥

”तोहें लोगोॅ के निन्दा पर जे सीता केॅ तेजी देल्हेॅ,
डर सें कठोर निष्ठुर होयकेॅ खाखो बन में भेजी देल्हेॅ,।
ऊ सीता परम पवित्र, शुद्ध धार्मिक उत्तम ब्रतवाली छै;
दैलेॅ निज शुद्धि-प्रमान यहाँ यै सभाबीच में ऐलौ छै॥

कुश-लव छै जामोॅ पूत दुओ चिर सदाचारिनी सीता के
शुचि पतिब्रता वैदेही के अकलुष सचरित्र पुनीता के।
सब तप के पुण्य सपथ हमरा, हम्में सब सच्च बताबै छी;
तोरे छेकौं कुश-लव बेटा यै शुभ रहस्य केॅ जनै छी॥

कत्तेॅ हजार सालोॅ तक तपसें जे भी पुन्य अरजने छी,
वरनोॅ के दशमोॅ पुत्र हमें, जे कठिन साधना करने छी।
केकरो नै हमरा फोॅल, मिली, जों निर्नल नैं छै वैदेही;
मन-वानी-क्रिया-आचरण सें, निष्पाप अगर नैं वैदेही॥

एक नजर निहारी सीता केॅ, गंभीर सहज अजगुत बानी,
कर जोड़ी राम उचारै छै- ”हे मुनिवर श्रेष्ठ परम ज्ञानी।
तोहें धर्मोॅ के ज्ञाता छोॅ, सब सच्चे-सच्च बताबै छोॅ;
सीता छै शुद्ध पवित्र परम, ई सभा बीच में गाबै छोॅ॥

तोरोॅ निर्दोष बचन पर ही हमरा पूरा विश्वास भेलै,
कुश-लव छै हमरे पुत दुओ, ई जानी केॅ उलास भेलै।
पैहने भी वैदेही ने खुद केॅ शुद्ध प्रमानित करने छै;
देवता समक्ष सभे शंका, सब अविश्वास केॅ हरने छै॥

तभियें लंका सें अवधपुरी तक सीताजी साथें ऐलै,
तय्यो लोगोॅ में जोरोॅ सें, निर्घिन चर्चा फैली गेलै।
छमिहोॅ हमरोॅ अपराधोॅ केॅ, सीता पवित्र छै जानी केॅ;
यै साध्वी केॅ तेजी देलियै, बस लोक मर्म पहचानी केॅ“॥

कुछ कंठ बीच अटकी गेलै, खखसी केॅ गल्लॉे साफ करी,
देवता मुनी दिस देखी केॅ, बानी में अजगुत भाव भरी।
”तय्यो सीता केॅ सभा बीच निज शुद्धि-प्रमान दियेॅ होतै;
हमरा तेॅ छै विश्वास मगर, जन के विश्वास लियेॅ होतै“॥

बोलीकॅे भोलै शान्त राम,
पर सभाबीच कुहराम भेलै।
चारो दिस ‘साधु-साधु’ के रब
बस धन्य-धन्य हे राम भेलै॥

गेरूआ वस्त्र में तपश्विनी,
सीता छै खाड़ी सभा बीच।
मुनि श्रेष्ठ प्रचेता-पुत्र नेह;
करुना सै ताकै छै नगीच॥

मुख-दृष्टि झुकैने छै नीचें,
अँचरा सें गल्ला केॅ घेरी।
जोड़ी केॅ दोनों हाथ, नजर
अपना सें, दुनियाँ सें फेरी॥

”हे माय धरित्री“ वैदेही,
अंतर सें आय पुकारै छै।
करुना सें, ममता सें, व्रत सें;
ई सनलोॅ शपथ उचारै छै-

”श्री राम बिना नै अन्य पुरुष केॅ,
मन-शरीर सें जानै छी।
चिन्तन में, बानी-क्रिया-बीच;
केवल हिनका पहचानै छी।

”हे माय धरित्री जों हमरोॅ ई-
शपथ सत्य तेॅ सभा बीच।
आबी केॅ गोदी लेॅ उठाय की;
हरन करोॅ लांछना नीच“॥

-एतना कहना छेलै कि भूतल फोड़ी केॅ,
जन-जन के शंका अहंकार भ्रम तोड़ी केॅ।
शुचि अजगुत दिव्य सिंहासन भेलै प्रगट वहाँ;
नतशीश विदेह-कुमारी छेलै खड़ी जहाँ॥

नागोॅ के सिर पर महा पराक्रम-धारी पर,
ऊ रत्न-जटित सिंहासन इच्छाचारी पर।
तेकरा पर दग्-दग् रूप धरित्री, देवी के;
गंधर्व, नाग, नर, किन्नर, मुनि कुल सेवी के॥

जोती सें सजलोॅ दोनों भुजा पसारी केॅ,
छाती में कस्सी केॅ मिथिलेश कुमारी केॅ।
गोदी लेलकै बेठाय सजाय-समेटी केॅ;
मानोॅ लेलकै लौटाय उपेक्षित बेटी केॅ॥

चारो दिस मचलै सोर धन्य रे वैदेही,
तोरोॅ छीं धर्माचरन धन्य हे पति नेही।
आश्चर्य चकित छै देव-नाग-दानव किन्नर;
फूलोॅ के बरसा सें झँपलै सिंहासन वर॥

दरकी उठलै छाती, भूतल दू फाँक भेलै,
विह्वल-विह्वल रामोॅ के छल-छल आँख भेलै।
ठक मारी देलकै सभा सन्न मरुवाय गेलै;
छन में सिंहासन भूतल बीच समाय गेलै॥

पाटी गेलै धरती केवल वैदेही नैं,
मोहोॅ में डुबलै सभा सिर्फ पति-नेही नैं।
”हा सीते“ अन्तर-तर में राम पुकारै छै;
छुच्छोॅ सूनोॅ जीवन पर आँसू बारै छै॥

लौटी चललै देवता-बृन्द खुशियाली में,
कुछ कन छलकी उठलै आँखी के प्याली में।
उमड़ी केॅ नेह-समुद्र हिलोरा मारैछै;
रामें खोजै सीता केॅ अन्तर खाली में॥

जन में उठलै जयकार राम के जै-जै-जै,
मर्यादा पुरुषोत्तम अकाम के जै-जै-जै।
”लोगें खाली बाहर के मुखड़ा देखै छै;
-भीतर सें वंचित राम मने-मन लेखै छै॥

फफकै छै छाती सोची जीवन व्यर्थ गेलै,
साध्वी के साथेॅ जे अन्याय-अनर्थ भेलै।
खुद केॅ दोषी पावी केॅ बीहोॅ फाटै छै;
प्रतिकार कहाँ? निरुपाय करेजोॅ घाँटै छै॥

”जय-जय रघुनन्दन राघवेन्द्र आदर्श धाम“,
जन विश्वासोॅ के आराधक साधक महान।
जय राजतंत्र मंे महन समैलोॅ प्रजातंत्र,
जय युग-युग में मानव-मंगल के मूलमंत्र“॥

राखी करुनामय हाथ राम के माथा पर,
संबोध करलकै वरुण पुत्र ने सभा बीच।
”हे स्थित प्रज्ञ“ सोचोॅ धीरज सें डेग धरोॅ;
छै कर्त्तव्य सें बहुत-बहुत भावना नीच॥

”धोने कलंक-कालिमा सती-साध्वी गेली,
अतएव यहाँ नैं दुख के कोनों कारन छै।
पति के जग में जे भागी हुअेॅ सुहागिन ऊ;
मिटतें-मिटतें भी दोनों कुल के तारन छै॥

सीता नैं सोचै जोग धरोॅ छातीं पत्थल,
बुक बान्ही केॅ लव-कुश सें सौंसे काव्य सुनोॅ॥
जे बाकी छै कर्त्तव्य पुरावोॅ निष्ठा सें;
अपजस केॅ तेजी जस के सुन्दर राह चुनोॅ॥

टुक-टुक देखी मुनिवर के तेजोमय ललाट
रामोॅ के व्याकुल मन में कुछ संबोध भेलै।
लेकिन नै, तनियो टा जोती के बाँही में
कसली सीता के, मन सें मुखड़ा-बोध गेलै॥