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सदस्य:Siya sachdev

मेरी जुबां से ज़िक्र तेरा सुब्ह ओ शाम हो ..............................


ले दे के इस हयात में बस एक काम हो मेरी जुबां से ज़िक्र तेरा सुब्ह ओ शाम हो

मैं उम्र भर तेरी ही इबादत में बस रहू सजदे में तेरे जिंदगी मेरी तमाम हो

खिलते रहे चमन में मोहब्बत के फूल ही दुनिया में नफरतों का न कोई निजाम हो

रुसवा जो हो गए हैं बहुत कमनसीब हैं ये कौन चाहता हैं जहाँ में न नाम हो

हम तो तुम्हारे वास्ते करते हैं इक दुआ सबके लबों पे आपका उम्दा कलाम हो

नेकी की राह से कोई भटके न अब सिया अच्छाइयों का रास्ता इतना तो आम हो