भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सदियों की शब-ए-ग़म को सहर हम ने बनाया / साग़र निज़ामी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:06, 18 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साग़र निज़ामी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सदियों की शब-ए-ग़म को सहर हम ने बनाया
ज़र्रात को ख़ुर्शीद ओ क़मर हम ने बनाया

तख़्लीक़ अंधेरों से किए हम ने उजाले
हर शब को इक ऐवान-ए-सहर हम ने बनाया

बरफ़ाब के सीने में किया हम ने चराग़ाँ
हर मौजा-ए-दरिया को शरर हम ने बनाया

शबनम से नहीं, रंग दिया दिल के लहू से
हर ख़ार को बर्ग-ए-गुल-ए-तर हम ने बनाया

हर ख़ार के सीने में चमन हम ने खिलाए
हर फूल को फ़िरदौस-ए-नज़र हम ने बनाया

हर रुख़ से तिरे हुस्न की ज़ौ फूट रही है
क्या ज़ाविया-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र हम ने बनाया

रफ़्तार को खिलते हुए ग़ुंचों की सदा दी
हर गाम को इक ख़ुल्द-ए-नज़र हम ने बनाया

अश्कों को शफ़क़-रंग किया ख़ून-ए-जिगर से
क्या ग़ाज़ा-ए-रुख़सार-ए-सहर हम ने बनाया

ढलते हैं जहाँ बादा-ए-तज्दीद के साग़र
वो मय-कदा-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र हम ने बनाया