भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सदियों से हुई रहज़नी तारीकिये शब् में / सादिक़ रिज़वी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:02, 7 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सादिक़ रिज़वी }} {{KKCatGhazal}} <poem> सदियों से ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सदियों से हुई रहज़नी तारीकिये शब् में
कुछ फर्क़ नहीं लगता हमें तब में और अब में

हक़गो को खुदादाद मिला करती है क़ुव्वत
ईसार का जज़्बा नहीं होता कभी सब में

पत्थर के सनम देखा नहीं तुझको पिघलते
मोम आसा सिफत पाई है मख्लूक़ ने रब में

उल्फत की नहीं पा सके मंज़िल वो कभी भी
इज़हारे-मोहब्बत जो अदा करते हैं लब में

क्यों कर वो गुनाहों के अँधेरे में घिरा है
मिलती तो नहीं खोट कहीं उसके नसब में

होते जो तबीब अच्छे तो बन जाते मसीहा
यूं मक्खियाँ मारा नहीं करते वो मतब में

माँ-बाप मेरा नाम न क्यों कर रखें 'सादिक़'
बाईस को पैदा जो हुआ माहे-रजब में