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सन्तुलन / मोनिका कुमार / ज़्बीग्न्येव हेर्बेर्त

 यह एक पंछी था बल्कि परजीवियों द्वारा खाया हुआ पंछी का बचा खुचा दयनीय टुकड़ा था। पंख उधड़े हुए, नीली चमड़ी दर्द और हताशा से काँपती हुई और यह फिर भी अपने आप को बचाने के लिए अपनी चोंच से सफ़ेद कीड़े पकड़ने की कोशिश कर रहा था जिन्होंने इसकी देह को अपने वज़न के नीचे दबा रखा था।

मैंने इसे रुमाल में लपेटा और इसे एक जानकार प्रकृति विद के पास ले गया। उसने क्षण भर इसका मुआयना किया और फिर कहा :

सब ठीक है। जो कीड़े इसे खा रहे हैं, उन्हें भी कोई परजीवी खा रहे हैं जो हमें दिखाई नहीं देते और शायद उन परजीवियों की कोशिकायों में तेज़म तेज़ कोई काम चल रहा है। इस तरह एक सीमित तन्त्र की यह शास्त्रीय उदाहरण है जहाँ एक अनन्त कण पूरे तन्त्र के सन्तुलन की शर्त कायम रखने के लिए विरोधी भाव से दूसरों पर निर्भर करता है। और हमें जो दिख रहा होता है उसे देखने की बजाए यह देखते हैं कि कोई फल शरमा रहा है और जीवन सुर्ख़ गुलाब की तरह है।

हमें ज़रूर इस बात का ख़याल चाहिए कि साँस लेने और साँस घुटने का मोटा ताना-बाना यूँ ही कहीं पर भी ना फट जाए क्योंकि ऐसा होने पर हमें कुछ ऐसा दिखाई देगा जो मौत से कहीं बदतर और जीवन से अधिक भयावह होगा।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : मोनिका कुमार