भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सन्त बनकर उग रहे कुछ अस्ल ये कूकर के मूत / महेश कटारे सुगम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सन्त बनकर उग रहे कुछ अस्ल ये कूकर के मूत ।
राख भी ख़ुद की नहीं है बाँटते सुख की भभूत ।

खेलकर ये भावनाओं से चमत्कारी बने,
पास में इनके नहीं हैं सत्य के कोई सुबूत ।

आपको कुछ भी मिले या न मिले ये छोड़िए,
आप हमने दे रखी इनके लिए दौलत अकूत ।

जोंक हैं ये ख़ून चूसेंगे हमारे जिस्म का,
खाएँगे गुर्राएंगे सब ऐश भोगेंगे कुपूत ।

अन्ध-श्रद्धा के सुगम चश्मे उतारो फैंक दो,
जो तुम्हें दिखला रहे पाखण्डियों को देवदूत ।