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सन्नाटे का शोर / मृदुला सिंह

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सन्नाटा पसरा है हर ओर
यह गर्मियों की एक उदास रात है
मन बेचैन है बहुत
कोई कहीं रो रहा है शायद
सरहुल के दिन हैं
पर सरगुजा में मांदर की थाप चुप है
उन पर थिरकने वाले पांव चुप हैं
एक दूसरे से जुड़ने वाले हाथ चुप हैं
खेत खलिहान मौन

भयावह दृश्य है
दिखते हैं हर जगह ताले
बस ताले!
गौरैया का चुग्गा छत पर वैसा ही पड़ा रहता है दिनभर
झबरा अब भोंकता नहीं उदास रहता है
अगोरता है घर का बंद दरवाजा
आम और महुए में
गदगदा के नही आये फूल इसबार
फूल पौधे पेड़ जानवर भी
शामिल हैं मानव जाति की इस भयावह त्रासदी की चिंता में

त्यौहारी दिनों के उजले तन पर खरोचें हैं
ये प्रकृति से हमारी ज़्यादती के निशान हैं
संभलो अब भी
यह कोरोना का संकट !
समूची प्रकृति का
चुनौती भरा घोषणा पत्र है।
मेरे इतना बुदबुदाते ही
टेबल पर रखी बुद्ध की प्रतिमा
हंसती रही देर तक