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सपने मिलन के मिल के तो काफ़ूर हो गए / गणेश बिहारी 'तर्ज़'

सपने मिलन के मिल के तो काफ़ूर हो गए
इतना हुए क़रीब कि हम दूर हो गए

जिन क़ायदों को तोड़ के मुजरिम बने थे हम
वो क़ायदे ही मुल्क का दस्तूर हो गए

कोनों में काँपते थे अँधेरे जो आज तक
सूरज को ज़र्द देखा तो मगरूर हो गए

'तर्ज़' इनको अपने सीने में कब तक छुपाओगे
ये ज़ख़्म अब कहाँ कहाँ रहे नासूर हो गए