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सपने / कविता भट्ट


मन की भूमि के गर्भ में
भविष्य के बीज बोकर
जब मैं आशा से सींचती हूँ,
परिश्रम की खाद देकर
उगाना चाहती हूँ सपने,
अंकुरित होते इन सपनों को
साहस की गुनगुनी धूप दिखाती हूँ,
कल्पनाओं की अँगड़ाई लेते
सपनों के अंकुरों पर
अतिसभ्य कहलाने वाले
झूठे सच कर देते हैं- तुषारापात
जो अनुभूति तक न पहुँच सके.
प्राकृतिक नहीं, हाय यह !
है मानवीय कुठाराघात कि
कोई उन अंकुरों पर
क्रूरता से
तुषारापात करता है
दंभ की हुंकार भरता है ।
-०-
[7:58 अपराह्न , 25 मई2018]