भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपनों की धूमिल छाया का आकार न भूलूंगा हरगिज़ / शेरजंग गर्ग

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सपनों की धूमिल छाया का आकार न भूलूँगा हरगिज़।
जो रूठ गया मनुहारों से वह प्यार न भूलूँगा हरगिज़॥

जीवन भर की आशाओं को जो पल दो पल में लूट गई,
मैं ऐसी निर्मम चितवन का व्यवहार न भूलूँगा हरगिज़।

मुस्कान अधर तक आती है, औ’ आँख डबडबा जाती है,
यह आँसू औ’ मुस्कानों की तकरार न भूलूँगा हरगिज़।

अपने प्राणों की बाज़ी में, जो कुछ भी मुझको आज मिली,
वह जीत न भूलूँगा हरगिज़, वह हार न भूलूँगा हरगिज़।