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सप्तम प्रकरण / श्लोक 1-5 / मृदुल कीर्ति

मुझ अनंत महोदधि में, विश्व रूपी नाव जो,
मन स्वरूपी पवन विचलित, पर न मैं सम्भव जो.------१

मुझ अनंत महोदधि में, जग कल्लोल स्वभाव जो,
उदय, चाहे अस्त, अब मैं वृद्धि क्षय, समभाव जो.-----२

मैं अनंत महोदधि , जग कल्पना निःसार है,
अब शांत, मैं स्थित अवस्था, में न कोई विकार है .----३

आसक्ति विषयों के प्रति, मन देह की मेरी नहीं,
आत्मज्ञ , मुक्त हूँ स्पृहा से, विषयों की चेरी नहीं.------४

आश्चर्य ! मैं चैतन्य और यह विश्व मात्र प्रपंच है,
अतः जग की लाभ हानि मैं, रूचि नहीं रंच है.-----५