भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सफर / सौरभ

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:03, 5 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे चान्द!
तुम फिर निकल आए
अपने नए रूप में
हर रात भेष बदल
फिरते रहते हो तुम
किसी भटके राही की तरह
जो गोलधारा घूम
फिर वहीं पहुँच जाता है
इतना घूमकर
मैं खुद को वहीं खडा़ पाता हूँ
चान्द की तरह
अब मैं सोच रहा हूँ परेशान
मैं चला भी था कभी
या तय कर लिया अपना
रास्ता मैंने।