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सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए / अभिषेक शुक्ला

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सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
ख़याल ओ ख़्वाब में अब के भी घर न रह जाए

मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में
ये ज़िंदगी भी मुझे सोच कर न रह जाए

बस एक ख़ौफ़ में होती है हर सहर मेरी
निशान-ए-ख़्वाब कहीं आँख पर न रह जाए

ये बे-हिसी तो मिरी ज़िद थी मेरे अज्ज़ा से
कि मुझ में अपने तआक़ुब का डर न रह जाए

हवा-ए-शाम तिरा रक़्स ना-गुज़ीर सही
ये मेरी ख़ाक तिरे जिस्म पर न रह जाए

उसी की शक्ल लिया चाहती है ख़ाक मिरी
सो शहर-ए-जाँ में कोई कूज़ा-गर न रह जाए

गुज़र गया हो अगर क़ाफ़िला तो देख आओ
पस-ए-ग़ुबार किसी की नज़र न रह जाए

मैं एक और खड़ा हूँ हिसार-ए-दुनिया के
वो जिस की ज़िद में खड़ा हूँ उधर न रह जाए