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सफ़र को छोड़ कश्ती से उतर जा / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

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सफ़र को छोड़ कश्ती से उतर जा
किसी तन्हा जज़ीरे पर ठहर जा

हथेली पर लिये सर को गुज़र जा
जो जीने की तमन्ना है तो मर जा

मुक़ाबिल से कभी हंस कर गुज़र जा
मेरे दामन को भी फूलों से भर जा

नई मंज़िल के राही, जाते जाते
सब अपने गम़ हमारे नाम कर जा

ये बस्ती है हसीनों की, यहां से
किसी आवारा बादल सा गुज़र जा

बरस जा दिल के आंगन में किसी दिन
ये धरती भी कभी सेराब कर जा

तू ख़ुशबू है तो फिर क्यों है गुरेज़ां
बिखरना ही मुक़द्दर है बिखर जा

ज़माना देखता रह जाये तुझ को
जहां में कोई ऐसा काम कर जा

इधर से आज वो गुज़रेंगे 'रहबर`
तू ख़ुशबू बन के रस्ते में बिखर जा