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सफ़र पे आज वही कश्तियाँ निकलती हैं / वसीम बरेलवी

सफ़र पे आज वही कश्तियाँ निकलती हैं
जिन्हें ख़बर है हवाएं भी तेज़ चलती हैं

मेरी हयात से शायद वो मोड़ छूट गये
बग़ैर सम्तों के राहें जहां निकलती हैं

हमारे बारे में लिखना, तो बस यही लिखना
कहां की शमअ हैं किन महफ़िलों में जलती हैं

बहुत क़रीब हुए जा रहे हो, सोचो तो
कि इतनी कुरबतें जिस्मों से कब संभलती हैं

'वसीम' आओ, इन आंखों को ग़ौर से देखो
यही तो हैं जो मेरे फ़ैसले बदलते हैं।