Last modified on 21 जुलाई 2019, at 23:34

सबसे उर्वर ज़मीन / राघवेन्द्र शुक्ल

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:34, 21 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राघवेन्द्र शुक्ल |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पाषाण तराशे गए,
सुंदर और सुंदर।
भगवान कहा गया उन्हें।
स्तुति गाई गई।
प्रेम लुटाया गया।
लेकिन, यह एकतरफा निष्ठा थी।
एकतरफा आस्था थी।
भगवान की ओर से
प्रेषित-प्रेम की कोई पावती नहीं आयी।
लेकिन, पुजारी ने दावा किया कि
-भगवान सारे संसार से प्रेम करता है
- कि यह पत्थर नहीं
देव हैं, जो हमारी तकलीफें दूर करने के लिए
मूर्तियों से बाहर आ जाएंगे।
अतार्किक तर्क अस्तित्व में आए।
कहानीकारों को आमदनी हुई, लेकिन,
भेद तब खुल गया
जब मूरत के सामने
मनुष्यता का सबसे जघन्य और बर्बर दृश्य भी
भगवान के चेहरे पर शिकन न ला सका।
ईश्वर दरअसल,
कोई सत्ता नहीं, बल्कि समूचे विश्व की
अधूरी आकांक्षाओं, आपदाओं और विवशताओं का
विलगित अपराधबोध-पुंज है,
जिसमें झोंक देते हैं हम अपना समस्त अपराध
और बोल पड़ते हैं कि
उसकी इच्छा के बिना कुछ भी नहीं संभव।
हम उससे रखते हैं निष्ठा यह जानकर भी
कि एकतरफा निष्ठा
आशाओं, उपेक्षाओं और दुखों की
सबसे उर्वर जमीन है