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सब ओर बिछे थे नीरव छाया के जाल घनेरे / अज्ञेय

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सब ओर बिछे थे नीरव छाया के जाल घनेरे
जब किसी स्वप्न-जागृति में मैं रुका पास आ तेरे।
मैं ने सहसा यह जाना तू है अबला असहाया :
तेरी सहायता के हित अपने को तत्पर पाया।
सामथ्र्य-दर्प से उन्मद मैं ने जब तुझे पुकारा-
किस ओर से बही उच्छल, यह दीप्त, विमूर्छन-धारा?
हतसंज्ञ, विमूढ हुआ मैं नतशिर हूँ तेरे आगे।
तेरी श्यामल अलकों में- ये कंचन-कण क्यों जागे?
क्यों हाय! रुक गया सहसा मेरे प्राणों का स्पन्दन?
मुझ को बाँधे ये कैसे अस्पृश्य किन्तु दृढ़ बन्धन!

डलहौजी, 18 मई, 1934