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सब कुछ होना...रहेगा / गिरिराज किराडू

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छत पर अनिष्ट टहल रहा है ढीठ, बेशर्म
कमरे में मुझे करना है अपना शल्य
इस मुहूर्त के तीखे चाकू से
मुझ पर नज़र रखने वाले क़ातिल तैनात हैं
इन दिनों
किसी और के यहाँ
अंतरिक्ष के फ़र्श पर बदहवास भागती रहती है फ़ोन की आवाज़
मेरे कपड़ों ने यूँ पहना है मुझे कि अब कोई और हूँ मैं
घर से बाहर निकलते हुए

कई सालों बाद एक उचक्का सा डॉक्टर पढ़ रहा है
सब कुछ के पंचनामे की खौफ़नाक, मनोरंजक रपट

मुझे यहाँ इस कविता में 'बचाना' शब्द लिखने से बचना है