भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सभी अंधेरे समेटे हुए पड़े रहना / रईस सिद्दीक़ी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:28, 29 मार्च 2014 का अवतरण
सभी अंधेरे समेटे हुए पड़े रहना
चराग़-ए-राह-गुज़र इस तरह बने रहना
ये ख़्वाहिशों का समुंदर सराब जैसा है
सभी हो अपने तआकुब में भागते रहना
नई बहार की ख़ुशियाँ नसीब हों लेकिन
निशानियाँ गए मौसम की भी रखे रहना
उदास चेहरे कोई भी नहीं पढ़ा करता
नुमाइशों की तरह आ भी सजे रहना
मैं इतनी भीड़ में इक रोज़ खो भी सकता हूँ
किसी जगह तो मिरा नाम भी लिखे रहना
ऐ ज़िंदगी मिरे दुख-सुख कहाँ ये छोड़ आई
वो लम्हा-लम्हा बिखरना वो रत-जगे रहना
‘रईस’ कौन सा आसेब है मकानों में
तमाम शहर ये कहता है जागते रहना