Last modified on 24 नवम्बर 2017, at 14:57

सभ्यता का विकास / परितोष कुमार 'पीयूष'

मानव सभ्यता के विकास में
हम मानव से पशु कब बन गये
पता ही ना चला

सभ्यता के उदय में
समस्त मानवीय मूल्यों का
पतन होता गया

संसाधनों की खोज और विकास में
हमारी सारी संवेदनाएँ विस्मृत होती गयीं
पनपते बाज़ार में

कराहते
टूटते रिश्तों ने
घर में ही घर बना डाला

सभ्यता विकास के इस दौर में
पशुता में तब्दील हो चुकी आदमियता ने
अपना ही विनाश कर लिया

यही हमारी सभ्यता का चमकता विकास है
कि आज आदमी ही
आदमी के खिलाफ खड़ा है