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सभ्यता / संतोष मायामोहन

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सड़क के दोनों किनारों
खड़े हैं
दसियों, बीसियों, तीसियों मंजिले मकान
मैं देखती हूं इन्हें
और मापने लगती हूँ
किसी भविष्य के "थेह"
की ऊँचाई ।
खोदती हूँ उन्हें
और ढूँढ़ने लगती हूं किसी सभ्यता
के निशान
वह मिलती है मुझे
इन महलों की गहरी नींव में
क्षत-विक्षत
लहूलुहान ।

अनुवाद : मोहन आलोक