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समंदरों में सराब और ख़ुश्कियों में गिर्दाब देखता है / सिराज अजमली

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समंदरों में सराब और ख़ुश्कियों में गिर्दाब देखता है
वो जागते और राह चलते अजब अजब ख़्वाब देखता है

कभी तो रिश्तों को ख़ून के भी फ़रेब ओ वहम ओ गुमान समझा
कभी वो नर्ग़े में दुश्मनों के हुजूम-ए-अहबाब देखता है

शनावारी रास आए ऐसी समंदरों में ही घर बना ले
कभी तलाश-ए-गुहर में अपने तईं वो ग़र्क़ाब देखता है

कभी तक़द्दुस-ए-तवाफ़ का सा करे है तारी वो जिस्म ओ जाँ पर
सरों पे गिरता हुआ लानतों का मीज़ाब देखता है