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समझ सहेली बतियाती हो / सरोज मिश्र

समझ सहेली बतियाती हो जिनसे मेरी यादें है!
अगर दिया अपनापन ज्यादा,मन मे घर कर जायेंगी!

बात करोगी अगरअधिक तो,
बातों की हद टूटेगी!
सोच पुराना हँस दोगी तो,
कभी रुलाई छूटेगी!
बेबस देख तुम्हारे ऊपर
प्रश्न उछाले जायेंगे!
मौन तुम्हारी मजबूरी है
दोष निकाले जायेंगे!
मन्दिर की यदि प्रतिमा खण्डित,तो फिर अर्चन विधियां ही,
वर के बदले शाप नए कुछ आँचल में भर जायेंगीं!
अगर दिया अपनापन ज्यादा ,मन मे घर कर जायेंगी!
समझ सहेली बतियाती हो!

मुझे गगन में मत ढूंढो,
मैं टूटा एक सितारा हूँ!
उतरी हुई नदी ने छोड़ा
जिसको वही किनारा हूँ!
व्यर्थ उसे चाहों में रखना
रह न सके जो बाहों में!
छोड़ों जोड़ घटाने ये तो
घटते रहते राहों में!
कर लेना तुम बन्द खिड़कियां पूनम वाली रातों में,
किरणे हैं नादान सिरहाने चन्द्र धूलि धर जायेंगी!
अगर दिया अपनापन ज्यादा,मन मे घर कर जायेंगी!
समझ सहेली बतियाती हो!

एक अधूरे उपन्यास का,
सौ तालों में रखना क्या!
जिस पर पता नही हो अंकित,
ऐसे खत का लिखना क्या
देख रहे हो जिसे झील में,
चाँद नही परछाई है!
बीत चुका सपनो का मौसम,
भरी दुपहरी छाई है!

औषधि में तुम भेज हिचकियां करते हो उपचार गलत,
रोग बढ़ेगा और अगर शंकाएं ही मर जायेंगी!
अगर दिया अपनापन ज्यादा,मन में घर कर जायेंगी!
समझ सहेली बतियाती हो!