"समय और मेरी कहानी-1 / अशोक शाह" के अवतरणों में अंतर
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+ | पूछता हूँ बार-बार | ||
+ | मैं कौन हूँ | ||
+ | खुद से बिल्कुल अनजान | ||
+ | ढूँढ़ता हूँ लगातार | ||
+ | शायद मैं उत्तर नहीं | ||
+ | उठता एक सवाल हूँ ? | ||
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+ | मानो खड़े हो मध्य में | ||
+ | दिशाएँ ढूँढता हूँ | ||
+ | कितना लम्बा फ़ासला है | ||
+ | पूरब और पश्चिम के बीच | ||
+ | ज़िन्दगी के बस स्टैन्ड पर | ||
+ | क्या छूटी हुई रूमाल हूँ ? | ||
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+ | ढूँढता हूँ बाहर-भीतर | ||
+ | किसके भीतर, भीतर है | ||
+ | किसके बाहर, बाहर | ||
+ | शब्दों की यह पहेली | ||
+ | सुलझा नहीं पाता हूँ | ||
+ | स्वरों की मात्रा का | ||
+ | हृस्वाकार या दीर्घीकार हूँ | ||
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+ | सोचता फिर वृक्ष हूँ | ||
+ | जड़ से लेकर पत्तों तक | ||
+ | फूल इसका, फल हूँ | ||
+ | संवहन-प्रवहन में | ||
+ | नीचे-ऊपर दौड़ता | ||
+ | मैं धरा का नीर हूँ ? | ||
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+ | हरी लचकती डालों पर बूना | ||
+ | सिलसिला जीवन का गूँथा | ||
+ | फ़ाख़्ता, उसका चूजा हूँ | ||
+ | एक हूँ और दूजा हूँ | ||
+ | मैं जीवन का नीड़ हूँ ? | ||
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+ | जड़ और मिट्टी के मध्य | ||
+ | बना अनोखा रिश्ता हूँ | ||
+ | नाचता कण-कण भूमा का | ||
+ | पोरों में समाता | ||
+ | निर्जीव हो जाता सजीव | ||
+ | मैं उस सृजन की तान हूँ ? | ||
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+ | झूमता आकाश जिससे | ||
+ | ऋतुएँ हैं चित्र उकेरती | ||
+ | फुनगियों के अधरों पर | ||
+ | खिलते सुमन को चूमती | ||
+ | बलखाती हवाओं की | ||
+ | लय गति और ताल हूँ ? | ||
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+ | सूखकर फिर काष्ठ होता | ||
+ | किसी पेड़ का पाठ होता | ||
+ | क़ागज कभी होता वसन | ||
+ | कुर्सी मेज आलमारी बन | ||
+ | घर-घर में बूना हुआ | ||
+ | हर कहानी का पात्र हूँ ? | ||
+ | |||
+ | यज्ञ से उठता धुआँ | ||
+ | चूल्हों में पकता हुआ | ||
+ | क्षुधा के आवेग का | ||
+ | उठती-गिरती तरंग हूँ | ||
+ | तृणमय इस जगती का | ||
+ | मैं धधकती आग हूँ ? | ||
+ | |||
+ | ढूँढता हूँ जगह-जगह | ||
+ | पूछता पल-पल हूँ | ||
+ | पलटता पल जो बीत गया | ||
+ | झाँकता भविष्य एकटक | ||
+ | ब्रह्माण्ड के आकार का | ||
+ | घूमता देशकाल हूँ ? | ||
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+ | स्मृतियों के मोड़ पर | ||
+ | कुछ पलों को छोड़कर | ||
+ | जिन्हें जी सका न मैं | ||
+ | और गया आगे निकल | ||
+ | आहलाद और विषाद सने | ||
+ | अतीत का आख्यान हूँ ? | ||
+ | |||
+ | प्रेम हूँ और घृणा मैं | ||
+ | लोभवश श्रद्धा लिये | ||
+ | दिलों का अंधविश्वास हूँ | ||
+ | खोजता हूँ निरन्तर | ||
+ | मैं कौन हूँ-- | ||
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+ | एक अच्छी क़िताब हूँ | ||
+ | स्वरचित एक कविता मैं | ||
+ | या मर्मस्पर्शी पढ़ी कहानी | ||
+ | मेरे अनुभवों की संघाती | ||
+ | बोला गया किसी भाषा का | ||
+ | मार्मिक एक शब्द हूँ ? | ||
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+ | एक अच्छा स्थान-सा | ||
+ | स्मृतियों में टँगी सुनहरी | ||
+ | विषाद भरी एक घटना हूँ | ||
+ | सुख और दुःख से लिपटा | ||
+ | खुदी के आगोष में सिमटा | ||
+ | धरती का राग-द्वेष हूँ ? | ||
+ | |||
+ | तारा एक टूटता हुआ | ||
+ | एक सितारा बनता हुआ | ||
+ | मैं एक खौलती भीड़ हूँ | ||
+ | या सहमा एकान्त हूँ | ||
+ | राजपथ दौड़ता हुआ या | ||
+ | डगमगाती पगडंडी हूँ ? | ||
+ | |||
+ | बारिष में टपकती छत हूँ | ||
+ | महलों की फिसलती फर्श हूँ | ||
+ | दृश्य-अदृश्य सूक्ष्म-स्थूल | ||
+ | नैतिक-अनैतिक सारे वसूल | ||
+ | दुनिया का खाली कोना | ||
+ | भरे चौराहे की चर्चा हूँ ? | ||
+ | |||
+ | कहीं मैं खोया हुआ | ||
+ | ढूँढने पुकारता हूँ | ||
+ | बार-बार घण्टी बजाता | ||
+ | पर दौड़ कोई नहीं आता | ||
+ | कहाँ छिपा, क्या घूँघट ओढ़ा | ||
+ | परदा न अब तक खोला | ||
+ | हर प्रश्न के उतर में दुबका | ||
+ | पसरा बस मौन हूँ ? | ||
+ | कौन हूँ मैं | ||
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20:56, 7 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण
1
पूछता हूँ बार-बार
मैं कौन हूँ
खुद से बिल्कुल अनजान
ढूँढ़ता हूँ लगातार
शायद मैं उत्तर नहीं
उठता एक सवाल हूँ ?
मानो खड़े हो मध्य में
दिशाएँ ढूँढता हूँ
कितना लम्बा फ़ासला है
पूरब और पश्चिम के बीच
ज़िन्दगी के बस स्टैन्ड पर
क्या छूटी हुई रूमाल हूँ ?
ढूँढता हूँ बाहर-भीतर
किसके भीतर, भीतर है
किसके बाहर, बाहर
शब्दों की यह पहेली
सुलझा नहीं पाता हूँ
स्वरों की मात्रा का
हृस्वाकार या दीर्घीकार हूँ
सोचता फिर वृक्ष हूँ
जड़ से लेकर पत्तों तक
फूल इसका, फल हूँ
संवहन-प्रवहन में
नीचे-ऊपर दौड़ता
मैं धरा का नीर हूँ ?
हरी लचकती डालों पर बूना
सिलसिला जीवन का गूँथा
फ़ाख़्ता, उसका चूजा हूँ
एक हूँ और दूजा हूँ
मैं जीवन का नीड़ हूँ ?
जड़ और मिट्टी के मध्य
बना अनोखा रिश्ता हूँ
नाचता कण-कण भूमा का
पोरों में समाता
निर्जीव हो जाता सजीव
मैं उस सृजन की तान हूँ ?
झूमता आकाश जिससे
ऋतुएँ हैं चित्र उकेरती
फुनगियों के अधरों पर
खिलते सुमन को चूमती
बलखाती हवाओं की
लय गति और ताल हूँ ?
सूखकर फिर काष्ठ होता
किसी पेड़ का पाठ होता
क़ागज कभी होता वसन
कुर्सी मेज आलमारी बन
घर-घर में बूना हुआ
हर कहानी का पात्र हूँ ?
यज्ञ से उठता धुआँ
चूल्हों में पकता हुआ
क्षुधा के आवेग का
उठती-गिरती तरंग हूँ
तृणमय इस जगती का
मैं धधकती आग हूँ ?
ढूँढता हूँ जगह-जगह
पूछता पल-पल हूँ
पलटता पल जो बीत गया
झाँकता भविष्य एकटक
ब्रह्माण्ड के आकार का
घूमता देशकाल हूँ ?
स्मृतियों के मोड़ पर
कुछ पलों को छोड़कर
जिन्हें जी सका न मैं
और गया आगे निकल
आहलाद और विषाद सने
अतीत का आख्यान हूँ ?
प्रेम हूँ और घृणा मैं
लोभवश श्रद्धा लिये
दिलों का अंधविश्वास हूँ
खोजता हूँ निरन्तर
मैं कौन हूँ--
एक अच्छी क़िताब हूँ
स्वरचित एक कविता मैं
या मर्मस्पर्शी पढ़ी कहानी
मेरे अनुभवों की संघाती
बोला गया किसी भाषा का
मार्मिक एक शब्द हूँ ?
एक अच्छा स्थान-सा
स्मृतियों में टँगी सुनहरी
विषाद भरी एक घटना हूँ
सुख और दुःख से लिपटा
खुदी के आगोष में सिमटा
धरती का राग-द्वेष हूँ ?
तारा एक टूटता हुआ
एक सितारा बनता हुआ
मैं एक खौलती भीड़ हूँ
या सहमा एकान्त हूँ
राजपथ दौड़ता हुआ या
डगमगाती पगडंडी हूँ ?
बारिष में टपकती छत हूँ
महलों की फिसलती फर्श हूँ
दृश्य-अदृश्य सूक्ष्म-स्थूल
नैतिक-अनैतिक सारे वसूल
दुनिया का खाली कोना
भरे चौराहे की चर्चा हूँ ?
कहीं मैं खोया हुआ
ढूँढने पुकारता हूँ
बार-बार घण्टी बजाता
पर दौड़ कोई नहीं आता
कहाँ छिपा, क्या घूँघट ओढ़ा
परदा न अब तक खोला
हर प्रश्न के उतर में दुबका
पसरा बस मौन हूँ ?
कौन हूँ मैं