Last modified on 16 जून 2016, at 10:10

समय का ताप / अर्चना कुमारी

चलो कहीं और चलते हैं
हर यात्रा बोलती है
जरा रुककर

पथराए घाटों की छाती पर
कितनी पायलें चुभी हुई
चलते-फिरते कदमों के नीचे
कुछ निशानियाँ दबी हुई

उस पार से आती हर्फों के चेहरे
टकटकी बाँध देखना
और सोचना उसके रंग के बारे में

बन्द आँखें लौट आती हैं
करीब अपने
नहीं मालूम कितना हाथ है दिल का
दिमाग की साजिश में

पहेलियाँ अबूझ नहीं होती
कुछ पल शंकालु होते हैं
तभी सोचती हूँ मैं
वक्त षडयंत्र का पर्यायवाची तो नहीं

सुविधाओं के सुरक्षित दायरे में
कहाँ अनुमान लग पाता है सुदूर असुविधाओं का
किंचित संदेहास्पद हुए जाते हैं सन्दर्भ
व्याख्या प्रमाणित करे भी कौन

कोलाहल के उत्सवी नाद में
मौन का सौम्य निनाद
घाट के तपते पाषाणों की व्यथा-कथा
जल के कलरव की उपमा वृथा

उर्वशी के हिय में उगा जो सूर्य है
अपने समय का ताप है॥