भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समय की नदी / उर्मिल सत्यभूषण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बही जा रही है समय की नदी यह
न रोके रूकी है समय की नदी यह
खुशी है कि ग़म है यह अश्कों से नम है
सदा जलभरी है समय की नदी यह
पिघलती, उमड़ती, उफनती, सरकती
निरतर बढ़ी है समय की नदी यह
पहाड़ों को फाड़े, रुखों को उखाड़े
बड़ी बलवती है समय की नदी यह
कभी लालौ गौहर, कभी रेत तट पर
बिछाती चली है समय की नदी यह
उठों को गिराती, गिरों को उठाती
कि समतामयी है समय की नदी यह
सरापा मुहब्बत, कभी आबे नफ़रत
कभी खूंसनी है समय की नदी यह
बड़ा हो या छोटा, खरा हो या खोटा
किसे छोड़ती है समय की नदी यह
घमंड़ों के पंडे, पाखंडें के झंडे
झुकाती रही है समय की नदी यह
कहानी है फ़ानी, सुनाता है पानी
युगों से जुड़ी है समय की नदी यह
कभी कोई आता, समय बंध लगाता
उसे पूजती है समय की नदी यह
दीये कुछ जला दो, उसे रौशनी दो
कि अँधी, गली है समय की नदी यह
ओ उर्मिल न झुकना, रवां हो न रुकना
कि तुझमें रमी है समय की नदी यह।