भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"समय के समक्ष ढलान पर मैं / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो ()
पंक्ति 9: पंक्ति 9:
  
 
भीमकाय समय के कदमों पर
 
भीमकाय समय के कदमों पर
मैं खडा हूं  
+
मैं खड़ा हूं  
हां, खडा ही हूं  
+
हां, खड़ा ही हूं  
जमीन कोडता हुआ
+
जमीन कोड़ता हुआ
और वह बरसों से वहीं खडा है
+
और वह बरसों से वहीं खड़ा है
 
अपनी हथेलियों पर  
 
अपनी हथेलियों पर  
 
भूत, भविष्य और वर्तमान  
 
भूत, भविष्य और वर्तमान  
 
की तीनों गेंदें  
 
की तीनों गेंदें  
 
बारी-बारी उछालते हुए  
 
बारी-बारी उछालते हुए  
टप- टप टपकाते हुए  
+
टप-टप टपकाते हुए  
  
 
और मैं हूं कि--
 
और मैं हूं कि--
पंक्ति 23: पंक्ति 23:
 
बुरी तरह ढलता जा रहा हूं
 
बुरी तरह ढलता जा रहा हूं
  
साल-दर-साल बूढे होते प्लेटफार्मों पर,
+
साल-दर-साल बूढ़े होते प्लेटफार्मों पर,
बरसों से खाली पडे खलिहानों और   
+
बरसों से खाली पड़े खलिहानों और   
 
पानी को तरसती नदी तल पर,
 
पानी को तरसती नदी तल पर,
वह खडा है--उसी तरह  
+
वह खड़ा है--उसी तरह  
 
अपने सिर  से आसमान भेदते हुए  
 
अपने सिर  से आसमान भेदते हुए  
 
अपनी काली-चमकदार मूंछों पर ताव देते हुए  
 
अपनी काली-चमकदार मूंछों पर ताव देते हुए  
या, सडक-किनारे गुमटी के पास  
+
या, सड़क-किनारे गुमटी के पास  
 
गरमा-गरम चाय चुसुकते हुए  
 
गरमा-गरम चाय चुसुकते हुए  
 
और ढल  रहे लोगों के हाथ में  
 
और ढल  रहे लोगों के हाथ में  
पंक्ति 50: पंक्ति 50:
 
मेरा ख्याल--  
 
मेरा ख्याल--  
 
जो बाद मेरे भी
 
जो बाद मेरे भी
बूढे लोगों के दिमाग में बना रहेगा--  
+
बूढ़े लोगों के दिमाग में बना रहेगा--  
 
जेब में हाथ डाले हुए बाबुओं के होठो  पर  
 
जेब में हाथ डाले हुए बाबुओं के होठो  पर  
तिल-तिल कर दम तोड रही  
+
तिल-तिल कर दम तोड़ रही  
 
       ---सिगरेट की तरह।
 
       ---सिगरेट की तरह।

12:42, 13 जुलाई 2010 का अवतरण

समय के समक्ष ढलान पर मैं

भीमकाय समय के कदमों पर
मैं खड़ा हूं
हां, खड़ा ही हूं
जमीन कोड़ता हुआ
और वह बरसों से वहीं खड़ा है
अपनी हथेलियों पर
भूत, भविष्य और वर्तमान
की तीनों गेंदें
बारी-बारी उछालते हुए
टप-टप टपकाते हुए

और मैं हूं कि--
ढलता ही जा रहा हूं
बुरी तरह ढलता जा रहा हूं

साल-दर-साल बूढ़े होते प्लेटफार्मों पर,
बरसों से खाली पड़े खलिहानों और
पानी को तरसती नदी तल पर,
वह खड़ा है--उसी तरह
अपने सिर से आसमान भेदते हुए
अपनी काली-चमकदार मूंछों पर ताव देते हुए
या, सड़क-किनारे गुमटी के पास
गरमा-गरम चाय चुसुकते हुए
और ढल रहे लोगों के हाथ में
अखबारों की सूर्खियां पढते हुए

कप की चाय के बासी होते-होते
ये सूर्खियां रोज़ धुंधलाती जाती हैं
जबकि समय
अपने कसमसाते बदन पर
टी-शर्ट और जीन्स पैंट डाले
टप-टप टपाटप टहलते हुए
ढलती ज़िन्दगियों का
ज़ायज़ा लेता जाता है

नहीं पता
वह कब तक यहां जमा रहेगा
ताश खेलते हुए मवालियों पर
फ़ब्तियां कसता रहेगा,
जबकि मेरे साथ ढलता जाएगा
मेरा ख्याल--
जो बाद मेरे भी
बूढ़े लोगों के दिमाग में बना रहेगा--
जेब में हाथ डाले हुए बाबुओं के होठो पर
तिल-तिल कर दम तोड़ रही
       ---सिगरेट की तरह।