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|रचनाकार=रामधारी सिंह '"दिनकर'"|अनुवादक=|संग्रह= समर निंद्य है / रामधारी सिंह '"दिनकर'"
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<poem>
अहंकार के साथ घृणा का
जहाँ द्वंद हो जारी;
ऊपर, शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिंगारी;
अहंकार के साथ घृणा का<br>जहाँ द्वंद हो जारी;<br>ऊपर, शान्ति, तलातल में<br>हो छिटक रही चिंगारी;<br><br> आगामी विस्फोट काल के<br>मुख पर दमक रहा हो;<br>इंगित में अंगार विवश<br>भावों के चमक रहा हो;<br><br> पढ़कर भी संकेत सजग हों<br>किन्तु, न सत्ताधारी;<br>दुर्मति और अनल में दें<br>आहुतियाँ बारी-बारी;<br><br> कभी नये शोषण से, कभी<br>उपेक्षा, कभी दमन से,<br>अपमानों से कभी, कभी<br>शर-वेधक व्यंत्य-वचन से।<br><br> दबे हुए आवेग वहाँ यदि<br>उबल किसी दिन फूटें,<br>संयम छोड़, काल बन मानव<br>अन्यायी पर टूटें,<br><br> कहो कौन दायी होगा<br>उस दारुण जगद्दहन का<br>अहंकार या घृणा? कौन<br>दोषी होगा उस रण का ?<br><br> तुम विषण्ण हो समझ<br>हुआ जगदाह तुम्हारे कर से।<br>सोचो तो, क्या अग्नि समर की<br>बरसी थी अंबर से?<br><br> अथवा अकस्मात मिट्टि से<br>फूटी थी यह ज्वाला ?<br>या मंत्रों के बल से जनमी<br>थी यह शिखा कराला ?<br><br> कुरुक्षेत्र से पूर्व नहीं क्या<br>समर लगा था चलने ?<br>प्रतिहिंसा का दीप भयानक<br>हृदय-हृदय में बलने ?<br><br> शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का<br>जब वर्जन करती है,<br>तभी जान लो, किसी समर का<br>वह सर्जन करती है।<br><br> शान्ति नहीं तब तक; जब तक<br>सुख-भाग न नर का सम हो,<br>नहीं किसी को बहुत अधिक हो,<br>नहीं किसी को कम हो।<br><br> ऐसी शान्ति राज्य करती है<br>तन पर नहीं हृदय पर,<br>नर के ऊँचे विश्वासों पर,<br>श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।<br><br/poem>
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