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समुन्दर पी रहे हैं / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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स्रोत हैं हम भी
सदा नीरा नदी के
मत समझ लेना
कि हम
अन्धे कुँए हैं।

इन मशीनों
कंकरीटों के शहर में
भीड़ है, पर
सब अकेले चल रहे हैं
ज़िन्दगी तो
एक यान्त्रिक ढंग भर है
बस उसी में
सब विवश से ढल रहे हैं
प्यार, ममता, मोह
रिश्तों की तिजोरी
छोड़ आए
माँ, बुआ, दादी बहन को
अब कभी
हम याद भी कर लें उन्हें तो
समय ही मिलता कहाँ है
एक क्षण को
एक कीली की परिधि में
रात-दिन चलते हुये सब
बैल कोल्हू के हुए हैं।
अर्थ है
सुख-भोग के साधन घने हैं
ओक भर-भर कर
समुन्दर पी रहे हैं
तृप्तिदायिन अब नहीं
मन्दाकिनी वह
चाटकर कुछ ओस कण ही
जी रहे हैं
प्यार की मीठी महक
छाया पिता की
खिड़कियाँ करती प्रतीक्षा
अब कहाँ हैं?
द्वार पर
राँगोलिका सजती नहीं हैं
दीप तुलसी का
नहीं चौरा यहाँ है
काग़ज़ी मुस्कान वाले ही अधर हैं
और ये सम्बन्ध
सेमल के घुये हैं।
और हम
कस्तूरिया मृग से भटकते
चार पल भी चैन से
जीने न पाए
आबरू नंगी लिये फिरते रहे हैं
एक चोला भी कभी
सीने न पाए
ढह गए वे
इन्द्र धनुषी पुल कभी के
मोरपंखी स्वप्न सब
बिखरे पड़े हैं
जूझने को तो
कभी पीछे नहीं थे
युद्ध सारे
काठ की तलवार से भी
हम लड़े हैं
यों, धराशायी नहीं हैं
फिर उठेंगे
शिखर ऊँचे भी
कभी
हमने छुये हैं।